Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 28
________________ जैनाचार्योंका शासनभेद सूत्रमें भी इन्हींका उल्लेख है और उनका 'श्रावकप्रज्ञप्ति' नामका ग्रंथ भी इन्हींका विधान करता है । इन व्रतोंकी संख्याके विषयमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं कि 'पंचेवणुव्वयाई' (पंचैव अणुव्रतानि ) --अर्थात् , अणुव्रत पाँच ही हैं । वसुनन्दी आचार्य भी अपने श्रावकाचारमें यही वाक्य देते हैं। सोमदेवने इसका संस्कृतानुवाद दिया है और श्रावकप्रज्ञप्तिमें भी यही (पंचेवणुन्वयाई) वाक्य ज्योंका त्यों . पाया जाता है। श्रावकप्रज्ञप्तिके टीकाकार श्रीहरिभद्रसूरि इस वाक्यपर लिखते हैं"पंचेति संख्या । एवकारोऽवधारणे । पंचैव न चत्वारि पड़ा।" ' अर्थात्--पाँचकी संख्याके साथ 'एव' शब्द अवधारण अर्थमें है जिसका आशय यह है कि अणुव्रत पाँच ही हैं, चार अथवा छह नहीं हैं। . इस तरहपर बहुतसे आचार्योंने अणुव्रतोंकी संख्या सिर्फ पाँच दी है और उक्त पाँचों ही व्रतोंको अणुव्रत रूपसे वर्णन किया है। परंतु समाजमें कुछ ऐसे आचार्य तथा विद्वान् भी हो गये हैं जिन्होंने उक्त पाँच व्रतोंको ही अणुव्रत रूपसे स्वीकार नहीं किया, बल्कि 'रात्रिभोजनविरति' नामके एक छठे अणुव्रतका भी विधान किया है। जैसा कि नीचे लिखे कुछ प्रमाणोंसे प्रकट हैक-" अस्य (अणुव्रतस्य) पंचधात्वं बहुमतादिष्यते । ___कचित्तुराज्यभोजनमपि अणुव्रतमुच्यते । तथा भवति।" -सागारधर्मामृतटीका । . . इन वाक्योंद्वारा पं० अशाधरजीने, जो १३ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं, यह सूचित किया है कि 'अणुव्रतोंकी यह पंच संख्या बहुमतकी अपेक्षासे है। कुछ आचार्योंके मतसे 'रात्रिभोजनविरति' भी एक अणुव्रत है, सो वह अणुव्रत ठीक ही है।'

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