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जैनाचार्यांका शासनभेद इन वाक्योंसे यह भी भले प्रकार स्पष्ट है कि श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें 'उपासकदशा' सूत्रसे बाहर श्रावकधर्मका जो कुछ भी विशेष कथन पाया जाता है वह सब पीछेसे आचार्याद्वारा अपनी अपनी बुद्धिके अनुसार निर्धारित तथा पल्लवित किया हुआ कथन है। और इस लिये उसे भी सिद्धान्ताविरोधकी दृष्टि से ही ग्रहण करना चाहिए और उसमें भी देश-कालानुसार यथोचित फेरफार किया जा सकता है । यहाँपर यह बात बड़ी ही विचित्र मालूम होती है कि श्वेताम्बर आचार्योंने, मद्यमांसादिकके त्यागका यदि विधान किया भी है तो वह दूसरे गुणव्रतमें जाकर किया है। और इस लिये इससे पहली अवस्थाओंवाले श्रावकों-अहिंसादिक अणुव्रतोंके पालने वालों-अथवा व्यावहारिक दृष्टिसे जैनीमात्रके लिये उनके सेवनका कोई निषेध नहीं है । ऐसा क्यों किया गया ? क्यों श्रावकमात्र अथवा जैनगृहस्थमात्रके लिये मद्यमांसादिकके त्यागका नियम नहीं रक्खा गया ! और उनके त्यागको मूलगुण नहीं बनाया गया ? जव सकलविरतियोंके. लिये मूलोत्तरगुणोंकी व्यवस्था है तव देशविरतियोंके लिये वह क्यों नहीं रक्खी गई ? क्यों ऐसा कमसे कम आचरण निर्दिष्ट नहीं किया गया जिसका पालन करना सबके लिये-जैनीमात्रके लिये जरूरी हो और जिसके पालनके विना कोई भी 'जैनी' अथवा 'महावीरभगवानका उपासक' ही न कहला सकता हो ? ये सब बातें ऐसी हैं जिनपर विचार किये जानेकी जरूरत है। संभव है कि ऐसा करनेमें श्वेताम्बर आचार्योंका.
कुछ उद्देश्यभेद हो । बन्धनोंको ढीला रखकर, बौद्धोंके सदृश समाज- वृद्धिका उनका आशय हो । परन्तु कुछ भी हो, इस विषयमें, निश्चित रूपसे, अभी में कुछ कह नहीं सकता। अवसर मिलनेपर, इस सम्बन्ध अपने विशेष विचार फिर किसी समय प्रकट किये जायेंगे।