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जैनाचार्योंका शासनभेद हारिक रूप समझना चाहिये और इस दृष्टिसे उसे महावीर भगवानका शासन भी कह सकते हैं। परंतु भिन्न शासनोंकी हालतमें महावीर भगवानने यही कहा, ऐसा ही कहा, इसी क्रमसे कहा, इत्यादिक मानना मिथ्या होगा और उसे प्रायः मिथ्यादर्शन समझना चाहिये । अतः उससे बचकर यथार्थ वस्तुस्थितिको जानने और उसपर ध्यान रखनेकी कोशिश करनी चाहिये । इसीमें श्रेय और इसीमें सर्वका कल्याण है। ___ यह तो हुई दिगम्बर जैनाचार्योंके शासन-भेदकी वात, अब श्वेताम्बराचार्योंके शासन-भेदको लीजिये । श्वेताम्बरमंथोंके देखनेसे मालूम होता है कि उन्होंने इस प्रकारके मूलगुणोंका कोई विधान नहीं किया और इसलिये, इस विषयमें, उनका शासनभेद भी कुछ दिखलाया नहीं जा सकता । श्वेताम्बरप्रन्धोंमें मद्यमांसादिकके त्यागरूप उक्त मूलगुणोंका प्रायः सारा कथन 'भोगोपभोगपरिमाण' नामके दूसरे गुणवतमें पाया जाता है। जैसा कि श्रीहेमचंद्राचार्यप्रणीत योगशास्त्र' के निन्न वाक्योंसे प्रकट है:
मद्यं मांसं नवनीतं मधूदुम्बरपंचकम् ।। अनंतकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनं ।। ३-६॥ .
आमगोरससंपृक्तं द्विदलं पुष्पितोदनं । . दध्यहद्वितीयातीतं कुथितान्नं विवर्जयेत् ॥३-७॥ . . परंतु . ' श्रावकप्रज्ञप्ति' नामके मूल ग्रन्थमें, जो उमाखाति आचार्यका बनाया हुआ कहा जाता है, ऐसा कोई कथन नहीं है । अर्थात् , उसके कर्ता आचार्य महाराजने ' भोगोपभोगपरिमाण' नामके 'गुणव्रतमें उक्त मद्यमांसादिकके त्यागका कोई विधान नहीं किया। हाँ, टीकाकारने उक्त गुणव्रतधारी श्रावकके लिये निरवद्य ( निर्दोष ) आहा