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जैनाचार्योंका शासनभेद इस वाक्यसे यह भी स्पष्ट है कि प्रतिपाद्योंके अनुरोधसे अर्थात् , जिस समय जैसे जैसे शिष्यों अथवा उपदेशपात्रोंकी बहुलता होती है उस समय उनकी आवश्यकताओं और परिस्थितियोंको लक्ष्य करकेधर्माचार्योंका उपदेश-उनका शासन-भिन्न हुआ करता है। और, इस लिये, इससे मेरे उस कथनका बहुत कुछ समर्थन होता है जिसे मैने इस लेखके शुरूमें प्रकट किया है । साथ ही, उक्त वाक्यसे यह भी ध्वनितं होता है कि धर्माचार्योंकी वह भिन्न देशना सत्रोंसेसिद्धान्तवाक्योंसे-अविरुद्ध होनी चाहिये । तभी वह ग्राह्य हो सकती है, अन्यथा नहीं । यह विलकुल सत्य है । मेरी रायमें मूलगुणोंका जो कुछ शासन-भेद ऊपर प्रकट किया गया है उसमें परस्पर सिद्धान्तभेद नहीं है—जैन सिद्धान्तोंसे कोई विरोध नहीं आता-और न इन भिन्न शासनोंमें जैनाचार्योंका परस्पर कोई उद्देश्यभेद ही पाया जाता है। सबोंका उद्देश्य क्रमशः सावद्यकर्मोको त्याग करानेका मालूम होता है । हाँ, दृष्टिभेद, अपेक्षाभेद, विषयभेद, संख्याभेद और प्रतिपाघोंकी स्थिति आदिका भेद जरूर है जिसके कारण उक्त शासनोंको भिन्न जरूर मानना पड़ेगा । और इस लिये यह कभी नहीं कहा जा सकता कि महावीर भगवानने ही इन सब भिन्न शासनोंका विधान किया था-उनकी वाणीमें ही ये सव मत इसी रूपसे प्रकट हुए थे-ऐसा मानना और समझना नितान्त भूल होगा । वास्तवमें ये सब शासन पापरोगकी शांतिके नुसखे ( Prescrip tions) हैं ओषधिकल्प हैं जिन्हें आचार्योंने अपने अपने देशों तथा समयोंके शिष्योंकी प्रकृति और योग्यता आदिके अनुसार तय्यार किया है। और इस लिये सर्वदेशों, सर्वसमयों और सर्व प्रकारकी प्रकृतिके व्यक्तियों के लिये अमुक एक ही नुसखा