Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ अष्ट मूलगुण १९ रका विधान जरूर किया है। साथ ही, ' वृद्धसंप्रदाय ' रूपसे कुछ प्राकृत गद्य भी उद्धृत किया है जिसमें उक्त व्रती के मद्य-मांसादिक और पंचोदुम्बरादिकके त्यागकी सूचना पाई जाती है । परंतु ' वृद्धसंप्रदाय' से अभिप्राय कौनसे संप्रदाय - विशेषसे है यह कुछ मालूम नहीं हुआ । श्रावकधर्मके प्रतिपादन विषयमें, श्वेताम्वरसम्प्रदायका सबसे प्राचीन ग्रंथ ' उवासगदसाओ' (उपासक - दशा) सूत्र है, जिसे ' उपासकाध्ययन' तथा द्वादशांगवाणीका 'सप्तम अंग' भी कहते हैं और जो महावीर भगवान के साक्षात् शिष्य 'सुधर्मास्वामी' गणधरका चनाया हुआ कहा जाता है। इस ग्रंथमें भी, उक्त गुणत्रतका कथन करते हुए, मद्य-मांसादिकके त्यागका स्पष्ट रूपसे कोई विधान नहीं किया गया । श्रावकधर्म-विपयक उनके इस सर्वप्रधान ग्रन्थमें, कथाओंको छोड़कर, श्रावकीय वारह व्रतोंके प्रायः अतीचारोंका ही वर्णन पाया जाता है, व्रतोंके स्वरूपादिकका और कुछ भी विशेष वर्णन नहीं है । दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिए कि इस ग्रंथमें श्रात्रकधर्मका पूरा विधिविधान नहीं है । इसीसे शायद ' श्रावकप्रज्ञप्ति ' के टीकाकार श्री हरिभद्रसूरिने, श्रावकके लिये निरवद्य आहारादिकका : विधान करते हुए, यह सूचित किया है कि 'सूत्रमें ( उपासक दशा में ) देशविरतिके सम्बंध में नियमित रूपसे 'इदमेव इदमेव ' ऐसा कोई कथन नहीं है, क्योंकि वहाँ सिर्फ अतिचारोंका उल्लेख किया गया है। इस लिये देशविरतिकी विधि विचित्र है और उसे अपनी बुद्धिसे पूरा करना चाहिए ।' हरिभद्रसूरिके वे वाक्य इस प्रकार हैं: " विचित्रत्वाच्च देश विरतेवित्रोत्रापवादः इत्यत एवेदमेवे - दमेवेति वा सूत्रे न नियमितमतिचाराभिधानाच्च विचित्रस्तद्विधिः स्वधियावसेय इति । "

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87