Book Title: Jain Acharyo ka Shasan Bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 23
________________ M - अष्ट मूलगुण उपयोगी होगा, ऐसा हठ करनेकी जरूरत नहीं है। जिस समय और जिस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियोंके लिये. जैसे ओषधिकल्पोंकी जरूरत होती है, बुद्धिमान वैद्य, उस समय और उस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियोंके लिये वैसे ही ओषधिकल्पोंका प्रयोग किया करते हैं। अनेक नये नये ओषधिकल्प गढ़े जाते हैं, पुरानोंमें फेरफार किया जाता है और ऐसा करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं होती, यदि वे. सव रोगशांतिके विरुद्ध न हों। इसी तरह पर देशकालानुसार किये हुए आचार्योंके उपर्युक्त भिन्न शासनोंमें भी कोई आपत्ति नहीं की जा सकती। क्यों कि वे सब जैनसिद्धान्तोंसे अविरुद्ध हैं। हाँ, आपेक्षिक दृष्टिसे उन्हें प्रशस्त अप्रशस्त, सुगम दुर्गम, अल्पफलसाधक बहुफलसाधक इत्यादिक जरूर कहा जा सकता है, और इस प्रकारका भेद आचार्योंकी योग्यता और उनके तत्तत्कालीन विचारोंपर निर्भर है । अस्तु, इसी सिद्धान्ताविरोधकी दृष्टिसे यदि आज कोई महात्मा, वर्तमान देश कालकी स्थितियोंको लक्ष्यमें रखकर, उपर्युक्तं मूल गुणोंमें भी कुछ फेरफार करना चाहे और उदाहरणके तौरपर १ मांसविरति, २ मद्यविरति, ३ पंचेंद्रियघातविरति, ४ हस्तमैथुनविरति, ५ शास्त्राऽध्ययन ६ आप्तस्तवन, ७ आलोकितपानभोजन, और ८ स्ववचनपालन नामके अष्ट मूलगुण स्थापित करे तो वह खुशीसे ऐसा कर सकता है, उसमें कोई आपत्ति किये जानेकी जरूरत नहीं है, और न यह कहा जा सकता है कि उसका ऐसा विधान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाके विरुद्ध है अथवा महावीर भगवानके शासनसे बाहर है; क्योंकि उक्त प्रकारका. विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं है। और जो विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध नहीं होता वह सब महावीर भगवानके अनुकूल है। उसे प्रकारान्तरसे जैनसिद्धान्तोंकी व्याख्या . अथवा उनका व्याव

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