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जैनाचायाँका शासनभेद .इस व्यवहारमें कि 'आप श्रावक हैं,' और 'आप श्रावक नहीं हैं। कुछ भारी असमंजसता प्रतीत हुई है। और इस असमंजसताको दूर करनेके लिए अथवा देशकालकी परिस्थितियोंके अनुसार सभी जैनियोंको एक श्रावकीय झंडेके तले लाने आदिके लिये जैनचार्योंको इस वातकी जरूरत पड़ी है कि मूलगुणोंमें कुछ फेरफार किया जाय और ऐसे मूलगुण स्थिर किये जायें जो व्रतियों और अव्रतियों दोनोंके लिये साधारण हों। वे मूलगुण मद्य, मांस और मधुके त्यागरूप तीन हो सकते थे, परंतु चूंकि पहलेसे मूलगुणोंकी संख्या आठ रूढ़ थी, इस लिये उस संख्याको ज्योंका त्यों कायम रखनेके लिये उक्त तीन मूलगुणोंमें पंचोदुम्बर फलोंके त्यागकी योजना की गई है और इस तरह पर इन सर्वसाधारण मूलगुणोंकी सृष्टि हुई जान पड़ती है। ये मूलगुण व्रतियों और अव्रतियों दोनोंके लिये साधारण है, इसका स्पष्टीकरण पंचाध्यायीके निम्न पद्यसे भले प्रकार हो जाता है:
* तत्र मूलगुणाचाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणां। .
कचिदव्रतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे ॥ उ०-७२३ ॥ परंतु यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि समन्तभद्र-द्वारा प्रतिपादित मूलगुणोंका व्यवहार अवतियोंके लिये नहीं हो सकता, वे व्रतियोंको ही • लक्ष्य करके लिखे गये हैं, यही दोनोंमें परस्पर भेद है। अस्तु; इस प्रकार सर्वसाधारण मूलगुणोंकी सृष्टि होनेपर, यद्यपि, इन गुणोंके धारक अवती भी श्रावकों तथा देशवतियोंमें परिगणित होते हैं-सोमदेवने, यशस्तिलकमें, उन्हें साफ तौरसे 'देशयति' लिखा है-तो भी वास्तवमें उन्हें नामके ही श्रावक (नामतः श्रावका) अथवा * यह पद्य : लाटीसंहिता में भी पाया जाता है।