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अष्ट मूलगुण
इन सभी अवस्थाओंमें परित्यक्त, अपरिवर्तित और अनाचरित मत तथा कल्पनाके धारकोंके साथ हमें किसी प्रकारका द्वेष रखने या उन्हें घृणाकी दृष्टिसे देखनेकी जरूरत नहीं है। बन सके तो उन्हें प्रेमपूर्वक समझाना और यथार्थ वस्तुस्थितिका ज्ञान कराना चाहिये । व्यर्थक साम्प्रदायिक मोह, व्यक्तिगत मोह और पक्षपातके वर्शाभूत होकर वादविवादके झंडे खड़े करना, आपसमें बैर-विरोध बढ़ाना, एक दूसरेको घृणाकी दृष्टिसे देखना और इस तरहपर अपनी सामाजिक तथा आत्मिक शक्तिको निर्बल बनाकर उन्नतिमें बाधक होना और साथ ही अनेक विपत्तियोंको जन्म देनेका कारण बनना कदापि ठीक नहीं है। ऐसे ही सदाशयोंको लेकर यह जैनाचार्योंके शासन-भेदको दिखलानेका यत्न किया जाता है।
अष्ट मूलगुण
नधर्ममें जिस प्रकार मुनियोंके लिये मूलगुणों और उत्तरगुणोंका
जविधान किया गया है उसी तरहपर श्रावकों-जैनगृहस्थोंके लिये भी मूलोत्तरगुणोंका विधान पाया जाता है । मूलगुणोंसे अभिप्राय उन व्रतनियमादिकसे है जिनका अनुष्ठान सबसे पहले किया जाता है और जिनके अनुष्ठान पर ही उत्तरगुणोंका अथवा दूसरे व्रतनियमादिकका
अनुष्टान अवलम्बित होता है। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि जिसप्रकार मूलके होते ही वृक्षके शाखा, पत्र, पुष्प और फलादिकका उद्भव हो सकता है उसी प्रकार मूलगुणोंका आचरण होते ही उत्तर गुणोंका आचरण यथेष्ट बन सकता है । श्रावकोंके लिये वे मूलगुण