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जैनाचार्योंका शासनभेद आश्चर्यकी बात तो तब होगी यदि कोई विद्वान् इस बातके कहनेका साहस करे कि संपूर्ण जैनाचार्योंने—जिनमें भट्टारक लोग भी शामिल हैं—जो कुछ भी, विरुद्धाविरुद्धरूपसे, कथन किया है वह सब महावीर भगवान्के द्वारा ही प्रतिपादित हुआ है। वास्तवमें महावीर भगवान्के द्वारा इन सब विभिन्न मतोंका प्रतिपादन होना नहीं बनता। संभव है कि उन्होंने इनमेंसे किसी एक मतका प्रतिपादन किया हो, अथवा यह भी संभव है कि उन्हें इन विभिन्न मतोंमेंसे किसी भी मतके प्रतिपादन करनेकी जरूरत ही पैदा न हुई हो, और ये सब विभिन्न कल्पनाएँ आचार्योंके मस्तिष्कोंसे ही उत्पन्न हुई हों । कुछ भी हो, आचार्योंके मस्तकोंसे देशकालानुसार नवीन कल्पनाओंका उत्पन्न होना भी कोई बुरी बात नहीं है, यदि वे कल्पनाएँ जैनधर्मके मूल सिद्धान्तोंके विरुद्ध न हों। ऐसी कल्पनाएँ कभी कभी बहुत ही कार्यसाधक और उपयोगी सिद्ध होती हैं। परन्तु देखना यह है कि ऐसी विभिन्न कल्पनाओं अथवा विभिन्न शासनोंकी हालतमें हमारा क्या कर्तव्य है। हमारा कर्तव्य है कि हम साम्प्रदायिक मोह, व्यक्तिगत मोह तथा पक्षपातको छोड़कर अपनी बुद्धिसे उनकी जाँच करें और जाँच करनेपर उनमें से जो कल्पना तथा मत हमें युक्ति-प्रमाणसे सिद्ध, जैनसिद्धान्तोंके अविरुद्ध और साथ ही समयानुसार उपयोगी प्रतीत हो उसको ग्रहण करें, शेषका सादर परित्याग किया जाय । यदि हमारी सदसद्विवेकवती बुद्धिमें, देशकालकी वर्तमान स्थितियोंके अनुसार, किसी ऐसी कल्पना तथा मतमें कुछ अविरुद्ध परिवर्तन करनेकी जरूरत हो तो उसे उक्त परिवर्तनके साथ स्वीकार करें। और यदि एकसे अधिक मत तथा कल्पनाएँ हमें युक्तियुक्त, अविरुद्ध और उपयोगी प्रतीत हों तो उनमेंसे चाहे जिसको ग्रहण करें और चाहे जिसपर आचरण करें। परन्तु
न्य है कि बुद्धिसक्ति -मातीत हा