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प्रास्ताविक निवेदन जैनाचार्योंके सम्बन्धमें उनके विभिन्न शासनके विषयमें ऐसा कोई नियम नहीं हो सकता; वह परस्पर विरुद्ध, बाधित और उद्देश्य-भेदको लिये हुए भी हो सकता है। क्योंकि जैनाचार्य, तीर्थंकरों अथवा इतर केवलज्ञानियोंके समान, ज्ञानादिककी चरम सीमाको पहुँचे हुए नहीं होते । उनका ज्ञान परिमित, पराधीन और परिवर्तनशील होता है । अज्ञान और कपायका भी उनके उदय पाया जाता है । वे राग-द्वेषसे सर्वथा रहित नहीं होते। साथ ही, उन्हें आगम-ज्ञानकी जो कुछ प्राप्ति होती है वह सब गुरुपरम्परासे होती है। गुरुपरम्परामें केवलियोंके पश्चात् जितने भी आचार्य हुए हैं वे सब क्षायोपशमिक ज्ञानके धारक हुए हैं
-सवोंका बुद्धिवैभव समान नहीं था, उनके ज्ञानमें बहुत कुछ तरतमता पाई जाती थी-इस लिये वे सभी आगमज्ञानको अपने अपने मतिविभवानुरूप ही ग्रहण करते आए हैं। धारणाशक्ति और स्मृतिज्ञान भी 'सवोंका वरावर नहीं था, बल्कि उसमें उत्तरोत्तर कमीका उल्लेख पाया जाता है, इसलिए उन्होंने खकीय गुरुओंसे जो कुछ आगमज्ञान प्राप्त किया उसे ज्योंका त्यों ही अपने शिष्यादिकोंके प्रति प्रतिपादन कर दिया, ऐसा कोई नियम नहीं हो सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि, जो उपदेश अनेक अज्ञानवासित और कपायानुरंजित हृदयोंमेंसे होकर प्रतिकूल परिस्थितियोंकी कड़ी धूपमें वाहर आता है वह ज्योंका त्यों ही बना रहता है, उसमें भिन्न प्रकारके गंध-वर्णके संसर्गकी संभावना ही नहीं हो सकती, 'अथवा वह बाह्य परिस्थितियोंके तापसे उत्तप्त ही नहीं होता। ऐसी हालत होते हुए आचार्योंके शासनमें-उनके वर्तमान ग्रंथोंमें यदि कहीं परस्पर विरोध, बाधा और असमीचीनताका भी दर्शन होता है तो इसमें कुछ भी आश्चर्यकी बात नहीं है।