Book Title: Iryapathiki Shatrinshika
Author(s): Jaysomgani
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar
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व्याख्या आवश्यकचूौँ पूर्वाचार्यकृतायां यत् 'प्रणिपातेन' प्रणिपात-नमुत्थु णं दण्डकेन चैत्यवन्दनारूपेण 'सान्तरा' सव्यवधाना 'ईर्या'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादीर्यापथिका, सामायिकदण्डकपाठादिति प्रस्तावाद्योज्यं, तत्र च प्रतिविधीयते इत्यावेयं, प्रणिपाते 'केनचिद्विशेषेण सामाचारीविशेषेपादिना 'नानात्वं' भिन्नवाक्यतेत्यर्थः, इति गाथासमुदायार्थः, अथ प्रतिपदं व्याख्यायते, तत्रावश्यकचूर्णिः (मुद्रितोत्तरार्द्धपृष्ठ २९९) "तत्य सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च, तं च सावगेण कह काय ?, सो सावगो दुविहो-इडिपत्तो अणिविपत्तो य, जो सो अणिविपत्तो सो चेइयघरे वा साहुसमीचे वा घरे वा पोसहसालाए वा जत्थ वा बीसमति अच्छति वा णिवावारो सहत्य करेइ सकें, चउसु ठाणेसु णियमा काय, तंजहा-चेइयघरे साधुमूले पोसहसालाए वा घरे वा आवासगं करतो त्ति, तत्थ जइ साहुसगासे करेति तत्थ का विही ?, जइ पारंपरभयं णत्थि. जइवि अ केणइ समं विवाओ णत्थि. जइ कस्सइ दई ण धरेइ मा तेण अंछविअंछियं कढिज्जइ. जइ धारणगं दण ण गिव्हइ मा भंडिज्जिहि त्ति, पढमं जद अ वावारं ण वावारेइ. ताहे घरे चेव सामाइयं काऊण उवाणहाओ मोत्तूण सचित्तदवविरहितो बच्चति, पंचसमिओ तिगुत्तो इरियाए उवउत्तो जहा साहू भासाए सावज्जं परिहरंतो, एसणाए कई वा लेहुं वा पडिले हिउँ पमज्जिउँ, एवं आदाणे णिख्खेवणे, खेलसिंघाणे ण विगिचति, विगिचंतो वा पडिलेहिय पमज्जिय थंडिले, जत्थ चिइ तत्थ गुत्तिनिरोह करेइ, एताए बिहीए गंता तिविहेण साहुणो णमिऊण पच्छा साहुसख्खियं सामाइयं करेइ 'करेमि भंते ! सामाइयं सावज्जं जोग पञ्चख्खामि दुविई तिबिहेणं जाव साहू पञ्जुशसापित्ति काऊणं, जइ चेइयाई अस्थि तो पढम चेइयाई बंदर, साहणं सगासाओ रयहरणं णिसेज्जं वा मग्गति, अह घरे तो से उवग्गहिय रथहरण अस्थि, तस्स असति |
१ "तत्र गति विधीयते इत्यावेये, प्रणिपाते 'कथमपि' केनचित्सामाचारीविशेषादिना शालेषु 'नानात्वं' भिन्नवाक्यतेत्यर्थः” इति प्रत्यन्तरे ।
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