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झान संक्षिप्त छतां सर्वोत्तम छे, तेथी सर्व परभावथी विरमी मुनिः सहज स्वभावरमणी बने छे.
६ मिथ्यात्वने भेदी समकित प्राप्त करावे एवं सम्यग् ज्ञान जो प्रगट थाय तो ते सारभूत ज्ञान पामी बीजा शास्त्रपरिश्रमनुं कंइ प्रयोजन नथी. जो स्वभाविक दृष्टियी अंधकार दूर थंतो होय तो कृत्रिम दीवानुं शुं प्रयोजन छे ? साचो दीवो जेना घटमांज प्रगटयो छे तेने सहज स्वाभाविक प्रकाश मळ्याज करे छे. तेथी ते मिथ्यात्व अंधकारनो विनाश करी आनंदमग्नज रहे छे. सारभूत ज्ञान विना लाखो गमे क्लेशकारक शास्त्र विलोडणथी शुं वळवानुं ? चोखी दृष्टिवाळाने एक पण दीवो बस छे, अने अंध दृष्टिने हजारो दीवाथी पण उपकार थइ शकवानो नथी. सम्यग्ज्ञानवान् सम्यग् दर्शन या समकित रत्न - ना प्रभावथी दिव्यदृष्टिज कहेवाय छे.
७ मिथ्यात्व पर्वता पक्षाने छेदवा समर्थ ज्ञानरूप वज्रथी शोभित मुनि निर्भय छतां शक्र इंद्रनी पेरे आनंदनंदनमां विचरे छे. रत्नत्रयी मंडित मुनि निर्भय छतां सहजानन्दमां मस्त रहे छे. तेवा योगी पुरुषने संयममां अरति थवा पामतीज नथी.
८ प्राज्ञ पुरुषो कहे छे के ज्ञान समुद्रथी नहीं उत्पन्न थयेलुं अभिनव अमृत छे, औषध विनानुं अपूर्व रसायण छे अने बीजानी अपेक्षा विनानुं अथवा सर्वथी श्रेष्ट एवं अनुपम एैश्वर्य छे, भाग्यवंत भव्योज तेनो लाभ कई शके छे. भाग्यहीनने ते प्राप्त थइ शकतुंज: नथी. सौभागी भमरो तेनो मधुर रस पीवे छे अने दुर्भागी तेनाथी दूरज रहे छे.