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(१२६) जणावनालं, अथवा उलटी रीते जणावनारुं होय ते “ विषय प्रतिभास" ज्ञान कहेवाय. कर्जा छ के
विसयपडिभासमित्तं, बालस्सेव खु रयणविसयंमि ॥ वयणाइएसु नाणं, सव्वथ्थाणाण मोणेयं ॥ १॥
हवे तेज ज्ञानने तेना चिन्ह आदिकथी देखाडता थका कहे छेनिरपेक्षप्रवृत्त्यादि, लिंगमेतदुदाहृतम् ॥ अज्ञानावरणापाय, महापायनिबंधनम् ॥ ३ ॥ __ अर्थ-(पाप संबंधी )शंका विनानी प्रवृति आदिक छे चिन्ह जेनु, तथा अज्ञानना आवरणनो नाश करनारं अने महा अपायना कारण रूप, ते " विषय प्रतिभास" ज्ञान कहेलं छे. ३.
टीकानो भावार्थ-आ लोक अने परलोक संबंधी अपायोनी (दुष्ट कार्योनी ) जे शंका, ते जेमांथी गयेली छे एवं जे प्रवर्तनादिक ते छे चिन्ह जेनुं, तेने आप्तोए “ विषय प्रतिभास " ज्ञान कहलं छे. ते शाथी थाय ते कहे छे. “अज्ञान" केतां मिथ्यात्वना उदयथी दुषित एवा जे मति, श्रुत अने अवधि ज्ञान (विभंग ज्ञान) तेना आवरणनो छे क्षयोपशम जेमां एवं (मिथ्यादृष्टिओनु) जे मति, श्रुत अने अवधि ज्ञान (विभंग ज्ञान ) ते अज्ञानज छे. कर्तुं छे के
अविसेसिया मइच्चिय, समदिहिस्स सा मइनाणं ॥ मइअन्नाणं मिच्छा-दिठिस्स सुयंपि एमेव ॥१॥ " सम्यग दृष्टिओनी जे बुद्धि ते 'मति ज्ञान ' छे अने मिथ्या