Book Title: Gyanpanchami
Author(s): Manek Bahen
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 239
________________ ( २२९) थाओ. ॥ ३ ॥ जे क्षेत्रमा अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं होय तेटलाज क्षे. त्रमा रह्यो थको पदार्थो देखे ते अननुगामि अवधिवालो जाणवो, ते 'अननुगामी ' ज्ञान स्थिरदिवानी उपमाने पामे छे ॥ ४॥ (बीजो भेद )॥ अंगुलना असंख्यातमा भागथी अनुक्रमे वधतुं वधतुं असंख्य लोक प्रमाण वृद्धि पामे छे ते तथा लोकावधि परमावधि विगेरे 'वर्धमान' अवधिज्ञान कहेवाय छे. ते गुण वांछा उत्कट थवाथी थाय छे. ॥५॥ (जीजो भेद )॥ योग्य सामग्री न होवाने लीधे घटता परिणाम थवाश पूर्वप्राप्ति करतां नीचे नीचे घटतुं जाय ते 'हीयमान' अवधिज्ञान कहेवाय छे. ए मननुं कार्य छे. ॥ ६॥ ( चोथो भेद )। संख्याता असंख्याता योजन सुधी यावत् उत्कृष्ट लोकान्त सुधीना एकला पुद्गल द्रव्यो देखी (तेटलुं ज्ञान थइने पार्छ) पडिवाइ थाय ते 'प्रतिपाति' ज्ञान कहेवाय छे. ॥ ७ ॥ (पांचमो भेद )। जे अवधिज्ञान अलोकनो एक प्रदेश देखे ते 'अप्रतिपाति' कहेवाय छे. ते अवधिज्ञान अनुक्रमे केवल ज्ञान ( अवश्य ) आपे छे. ॥८॥ (छठो भेद)॥ ॥ श्री मनःपर्यवज्ञानना चैत्यवन्दननो अर्थ ॥ चतुर्थ श्रीमनःपयर्वज्ञान छे, गुणनिमित्ते थनारं ते ज्ञान अप्रमत्त ऋद्धिना निधान चारित्रधारी कोइक मुनिने शुभपरिणामनी

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