Book Title: Gyanpanchami
Author(s): Manek Bahen
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 243
________________ ॥ श्री मनःपर्यवज्ञाननी स्तुतिनो अर्थ ॥ तीर्थकर प्रभु अभिमानने निवारण करी सिद्ध भगवन्तोने नमस्कार करी सर्वविरति सामायिकनो उच्चार करे छे, अने ज्यां सुधी छद्मस्थ अवस्था रहे छे त्यां सुधी योगासन अने तप धारण करे छे. ते वखते मनुष्यक्षेत्रमा विस्तार पामनारुं चोथु मनःपयव ज्ञान तेओ प्राप्त करे छे. विजयलक्ष्मी अने सुखने करनारा ते प्रभुने हे भव्यमाणि ! तमे नमस्कार करो. ॥ १ ॥ ॥श्री मनःपर्यवज्ञानना दुहानो अर्थ. ॥ संयम गुणनी शुद्धता पामवाथी थनारुं संज्ञि जीवना मनोगत पदार्थोने जे प्रकट रीते विशुद्धपणे जाणे छे ते मनःपर्यव ज्ञान कहेवाय. ते ज्ञान बे भेदे छे ॥ १॥ आ पुरुषे घडो चिन्तव्यो छे एम सामान्य धर्मे जाणे-घणुं करीने विशेष धर्मथी शून्य जाणे ते ऋजुपति मनःपर्यव जाणवू ॥२॥ (पहेलो भेद ) ॥ सर्वविरति गुणस्थानकने विषे आ (मनःपर्यव ज्ञानरूप) गुण जे मुनिओने उत्पन्न थयो छे ते मुनिओना चरणकमलने प्रेमथी मनमा धारण करीने हुं नमस्कार करुंछ. ॥३॥ अमुक नगरनो, अमुक जातिनो, सुवर्णनो, आवा स्वरूपवालो घट चिन्तव्यो छे, एम विशेष धर्मवाला मनने जाणे ते विपुलमतिनुं स्वरूप जाणवू ॥ १ ॥ (बीजो भेद )॥

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