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(२०२) दिव्य ध्वनि दुंदुभि, भामंडल झलकार ॥ बरसे सुर कुसुमे, सिंहासन जिन सार । वंदे लक्ष्मी सूरि, केवल ज्ञान उदार ॥ १ ॥
॥ इति स्तुति ॥ पछी खमासमण दइ उभा रही केवळज्ञानना गुण स्तववा दुहा कहेवा त आ प्रमाणे
॥ अथ दुहा.॥ बहिरातम त्यागे करी, अंतर आतम रूप ॥ 'अनुभवि जे परमातमा, भेद एकज चिद्रूप ॥१॥ पुरुषोत्तम परमेश्वरु, परमानंद उपयोग ! जाणे देखे सर्वने, स्वरूप रमण मुखभोग ॥२॥ गुण पर्याय अनंतता, जाणे सघला द्रव्य ।। काल त्रय वेदी जिणंद, भाषित भव्याभव्य ॥३॥ अलोक अनंतो लोकमां, थापे जेह समथ्य ।। आतम एक प्रदेशमां, वाय अनंत पसथ्य ॥४॥ केवल देसण नाणनो, चिदानंद घन तेज ॥
ज्ञान पंचमी दिन पूजीए, विजय लक्ष्मी शुभ हेज ||५||खमा०॥ प्रांते स्मासमण दइ अविधिआशातनानो मिच्छामी दुक्कड देवो. इति श्री विजयलक्ष्मी सूरिकृत, विधि सहित
श्री ज्ञान पंचमी देववंदन समाप्त.॥