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व्यञ्जनावग्रहनो जघन्य काल आवलिकानो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट काल बेथो नत्र श्वासोच्छ्वास प्रमाण छे. चक्षु तथा मनविनानी बाकीनी चार स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र इन्द्रियो माध्यकारी छे. (जे इन्द्रियोनो पोताथी जाणवालायक पदार्थनी सावे संयोगरूप संवन्ध यवाथी ज्ञान थाय ते प्राप्यकारी इन्द्रिय जाणवी ) चक्षु तथा मन एबे अप्राप्यकारी ज्ञानी पुरुषोए दीठेल छे. ( जे इन्द्रियथी पोताना विषयनी साथै संयोग थया विना ज्ञान थाय ते अप्राप्यकारी जाणवी ) || ६ || सम्यक् ( यथार्थ ) “ जं जिणेहिं पवेइयं तमेव सच्च णीसंकं " ( वीतरागजिनेश्वर भगवन्तोए जे बताब्यं तेज सत्य अने निःशंक छे) एवी भावनाथी पवित्र थयेली श्रद्धावाला जे जी - वोने ज्ञाननो प्रकाश उत्पन्न थयो छे ते पुरुषोना चरणकमलने भावपूर्वक उल्लास धारण करी हुं त्रिकरणयोगे नमस्कार करुं हुं ॥ ७ ॥ वर्ण गंध रस स्पर्शादिनो संबन्ध जे ज्ञानमां जणाय नहि पण व्यञ्जनावग्रस्थ वधारे स्पष्टताए 'आ कांइक छे' एटलुं वस्तुनुं ज्ञान पांच इन्द्रियों तथा ( इन्द्रिय नही पण इन्द्रिय समान ) छठा नोइन्द्रिय मनोद्वारा थाय ते ज्ञान अर्थावग्रह' कहेवाय छे ॥ ८ ॥ ( आ दुहानी अंदर मतिज्ञानना छ भेदो बनाव्या छे, १ सर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह, २ जिह्वेन्द्रिय अर्थावग्रह, ३ घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, ४ चक्षुरिन्द्रिय
१ वर्ण गन्ध रस स्पर्शनी भिन्नता शिवायनुं आ कांइक वस्तु छे एवं ज्ञान, आ मति ज्ञाननो बीजो भेद, आ ज्ञाननी स्थिति निश्वयथी एक समयनी छे अने व्यवहारथी अन्तर्मुहूर्त्तनी छे.