________________
( १४६ )
|| अभिनव ज्ञानपद पूजा || ॥ दोहा ॥
ज्ञानवृक्ष सेवो भविक, चारित्र समकित मूल । अजर अमर पद फल कहो, जिनवर पदवी फूल ॥ १ ॥ ॥ दाळ ॥
कोइलो पर्वत धुंधलोरे लोल ॥ ए देशी ॥
अभिनव ज्ञान भणो मुदारे लाल, मूकी प्रमाद विभाव रे; हुं वारी लाळ | बुद्धिना आठ गुण धारिये रे लाल, आठ दोषनो अभाव रे ।। हुं वारी लाल, प्रणमो पद अढारमुं रे लाल || ए आंकणी ॥ १ ॥ देशाराधक किरिया कहीरे लाल, सर्वाराधक ज्ञान रे ॥ हुं० ॥ मुहूर्तादिक किरिया करे रे लाल, निरंतर अनुभव ज्ञान रे। हुँ ०प्र० ॥२॥ ज्ञानरहित किरिया करे रे लाल, किरियारहित जे ज्ञान रे || हुं० ॥ अंतर खजुआ रवि जिश्यो रे लाल, षोडशकनी ए वाणरे । हुँ| | ०प्र० || ३ || छह अहमादिक तपे करी रे लाल, अज्ञानी जे शुद्ध रे ॥ हुं० ॥ तेहथी अनंत गुणी शुद्धतारे लाल, ज्ञानी प्रगटपणे लद्ध रे || हु०प्र० || ४ || राचे न जूठ किरिया करी रे लाल, ज्ञानवंत जुवो युक्ति रे ॥ हुं० ॥ जूठ साच आतमज्ञानथीरे लाल, परखे निज निज व्यक्ति रे ॥ हुं०प्र०॥५॥ पांच भेद छे ज्ञानना रे लाल, तेह आराधे जेह रे || हुं० ॥ सागरचंद परे प्रभु हुवेरे लाल, सौभाग्य लक्ष्मी गुणगेहरे | हुँ०म० ||६|| ॥ इति अभिनव ज्ञानपद पूजा अष्टादशी ॥ १८ ॥