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( १८२ )
॥ अथ श्री मतिज्ञाननुं चैत्यवंदन ॥
श्री सौभाग्य पंचमीतणो, सयळ दिवस शणगार । पांचे ज्ञानने पूजीए, थाय सफल अवतार ॥ सामायिक पोसह विषे, निरवद्य पूजा विचार । सुगंध चूर्णादिकथकी, ज्ञान ध्यान मनोहार || पूर्व दिशे उत्तर दिशे, पीठ रची त्रण सार । पंच वरण जिन बिंबने, स्थापीजे सुखकार ॥ १ ॥ पंच पंच वस्तु मेलवी, पूजा सामग्री जोग । पंच वरण कलशा भरी हरीए दुःख उपभोग ॥ यथाशक्ति पूजा करो, मतिज्ञानने काजे । पंच ज्ञानमां घूरे कां, श्रीजिन शासन राजे ॥ मति श्रुत विण होवे नहिए, अवधि प्रमुख महा ज्ञान । ते माटे मति धूरे कां, मति श्रुतमां मति मान ॥ २ ॥ क्षय उपशम आवरणनो, लब्धि होये सम काले । स्वाम्यादिकथी अभेद छे, पण मुख्य उपयोग काले || लक्षण भेदे भेद छे, कारण कारज योगे । मति साधन श्रुत साध्य छे, कंचन कलश संयोगे || परमातम परमेसरुए, सिद्ध सयल भगवान । मतिज्ञान पामी करी, केवल लक्ष्मी निधान ॥ ३॥ इतिचैत्यवंदन ॥ १ ॥ नमुथ्य० || जावंति● || नमोऽर्हत० ॥ कई स्तवन कही ते आ प्रमाणे