Book Title: Gommatasara Karma kanda Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan View full book textPage 6
________________ * पुरोवाक् * प्रथम संस्करण: बारह-अंगग्गिज्झा विलिव-मल-मूद दसणुत्तिलया। विविह-वर-चरण-भूसा पसिया सुय-देवया सुइरं ।। अन्तिम तीर्थङ्कर वर्धमान - महावीरकी दिव्यध्वनिस निस्सृत, नौनमगणधर द्वारा द्वादशांग-रूपसे ग्रथित तथा परम्परागत, अर्वाचीन व आरातीव आचार्योंके द्वारा लिपिबद्ध जिनवाणीका प्रथम-करण-चरण व द्रव्यानुयोगरूप अनुयोगचतुष्टयमें विभाजित किया गया है। अनुयोगचतुष्टय मं करणानुयोगसम्बन्ध कायपाहुड़, षट्खंडागम, महाबंधादि विशिष्टग्रन्थों का वीरप्रभुको वाणीसे साक्षात् संबंध रहा है। भगवान् महावीरकी वाणीसे साक्षात् सम्बद्ध भगवद् गुणधराचार्य एवं पूज्ययाट भूतबली-पुष्पटताचार्य प्रणीत इन ग्रन्धोंका गम्भीर अध्ययन करते हुए सिद्धान्तचक्रवर्तित्वको प्राप्त श्री नामचन्द्राचार्यने साररूपमें गोम्मटसारादि ग्रन्धोका अकृतभाषामें गाथा छंदोबद्ध सृजन किया है। आचार्यदेवकी कर्मसिद्धान्त व कर्मक्षपणसम्बन्धी अनुपम रचनाएँ संस्कृत टीकाओं एवं पं. प्रवर टोडरमलजी कृत ढुंढारीभाषासहित लगभग ६० वर्ष पूर्व कलकत्तासे प्रकाशित हुई थीं। इसीके आधारसे प्रायः समाजके अध्येताजन स्वाध्याय-मनन चिंतन करते रहे हैं, किन्तु इन ग्रन्थोंके शुद्ध आधुनिक हिन्दी टीकासमन्वित संस्करणोंके प्रकाशनकी आवश्यकता बराबर बनी हुई थी। इस दिशामें रायचन्द्रग्रन्थमालासे गोम्मटसारकर्मकाण्ड-जीवकाण्डादि ग्रंथोंका शुद्ध हिन्दी अनुवाद २-३ संस्करणों में प्रकाशित हुआ है, परन्तु वह उद्देश्यकी सम्पूर्ति आंशिकरूपमें ही करता है, क्योंकि इन संस्करणों) नेमिचन्द्राचार्च के उक्तग्रन्धोंकी संस्कृतटीका अक्षरशः अनूदित टीका न होकर साररूप कथन पाया जाता है। उसी संक्षिप्त हिन्दीटीकाके आधारपर विद्जगत् में पठन-पाठन चलता रहा। विशेष जिज्ञासुओंको मात्र उक्तग्रन्थोंकी पं. टोडरमलजीकृत टीका ही उपलब्ध थी। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजीका लक्ष्य इस र गया, उन्होंने समाजकी चिरअभिलषित आवश्यकताकी सम्पूर्ति हेतु अपनी मनोभावना निकटस्थ लोगोंमें व्यक्त की, किन्तु वह भावना मात्र व्यक्त होकर ही रह गई। सन् १९७३ में परम पूज्य १०८ आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराजके शिष्य मुनियुगल (पूज्य १०८ श्री सम्भवसागरजी व वर्धमानसागरजी महाराज) ५ आर्यिकाओं (ज्ञानमतीजी, मैं, श्रेष्ठमतीजी, रत्नमतीजी । यशोमतीजी) का तथा क्षुल्लिका संथमभतीजीका चातुर्मास नजफगढ़ (दिल्ली) में हुआ था। चातुर्मासप्रवासमें पुनः एकदिन माताजीने अपने उपर्युक्त विचारोंको इसप्रकार रखा कि “आचार्य श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित गोम्मटप्सार-त्रिलोकसारादि ग्रन्धका आधुनिक हिन्दीमें अनुवाद होकर उनका प्रकाशन हो जावे तो नवीनपीढ़ीको इन ग्रन्धों के स्वाध्यायमं सहायता मिलेगी और उनकी करणानुयोगी ग्रन्धोंके प्रति रुचि भी जागत होगी। गणितप्रधान इन ग्रन्थोंके स्वाध्यायका जो अभावमा होता जा रहा है उसमें प्रवृत्ति बढ़ेगी।" इन्हीं दिनों संघमें जैनभूगोलसम्बन्धी तिलायपण्णत्ति-त्रिलोकसारादि ग्रन्धोंका स्वाध्याय भी चल रहा था अत: सर्वप्रथम त्रिलोकसारकी पं. प्रवर टोडरमलजी कृत ढुंढारीभाषाका शुद्ध हिन्दी अनुवाद करनेका विचार हुआ, किन्तु जब यह ज्ञात हुआ कि माधवचन्द्र त्रैविद्यदेवाचार्यकी संस्कृतटीकाके आधारसे आर्यिका विशुद्धमतीजीकेPage Navigation
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