Book Title: Gnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 12
________________ [11] पंचम अध्ययन - इस अध्ययन में बतलाया गया है कि यदि कोई संयमी साधक संयम की साधना आराधना करते हुए शिथिल हो जाता है एवं बाद में किसी निमित्त को पाकर | वह पुनः जागृत हो संयम में पूर्ण पुरुषार्थ करने लग जाता है तो शैलक राजर्षि मुनि की भांति वह आराधक हो कर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता हैं। इस अध्ययन में मूल कथानक के साथ दो-तीन अवान्तर कथानक भी हैं। शैलकपुर नगर के राजा शैलक ने अपने पांच सौ मंत्रियों के साथ अपने पुत्र मंडुक को राजगद्दी पर बिठा कर दीक्षा अंगीकार की। साधु-जीवन की कठोर साधना के कारण उनका शरीर पित्तज्वर आदि रोग से ग्रसित हो गया। एक बार विचरण करते हुए शैलक मुनि अपने पांच सौ शिष्यों के साथ शैलक नगर में पधारे, उनके पुत्र मण्डुक राजा ने अपने पिता श्री मुनि को यथा योग्य चिकित्सा कराने का निवेदन किया, शैलक मुनि ने स्वीकृति प्रदान कर दी। नशीली औषधियों एवं सरस भोजन के उपयोग में शैलक मुनि इतने मस्त हो. गए कि विहार करने तक का नाम ही नहीं लेते। ऐसे स्थिति में उनके मुख्य मंत्री पंथक मुनि को उनकी सेवा में रख कर शेष ४६६ शिष्यों ने अन्यत्र विहार कर दिया। ... कार्तिक चौमासी का दिन था। शैलक मुनि आहार पानी एवं नशीली औषधि का सेवन कर सुख पूर्वक सोये हुए थे। उनका शिष्य पंथक मुनि ने सर्व प्रथम दैवसिक प्रतिक्रमण किया। इसके पश्चात् उन्होंने चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की आज्ञा के लिए अपना मस्तक अपने गुरु शैलक मुनि के चरणों में रखा। शैलक मुनि गहरी निद्रा में सोये हुए थे ज्यों ही उनके मस्तक का स्पर्श शैलकमुनि के चरणों को हुआ तो वे एक दम क्रुद्ध हुए और बोले अरे कौन है, मौत की इच्छा करने वाला, दुष्ट जिसने मेरे पैरों को छू कर मेरी निद्रा भंग कर दी। इस पर पंथक मुनि ने दोनों हाथ जोड़कर निवेदन किया भगवन्! मैं आपका शिष्य पंथक हूँ। मैंने दैवसिक प्रतिक्रमण कर लिया है और चौमासी प्रतिक्रमण करने के लिए उद्यत हुआ हूँ, इसलिए मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों को स्पर्श किया है, सो देवानुप्रिय! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। पंथकमुनि के इस प्रकार कहने पर शैलक राजर्षि की आत्मा एक दम जागृत हुई, अहो मैंने राज्य रिद्धि का त्याग कर संयम अंगीकार किया और संयम में इतना शिथिलाचारी एवं आलसी बन गया कि चार माह गुजर जाने का भी मुझे भान नहीं रहा। इस प्रकार विचार कर दूसरे ही दिन पंथक अनगार के साथ शैलक राजर्षि ने विहार कर दिया और ग्रामानुग्राम विचरने लगे। जब अन्य ४६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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