Book Title: Dravya Vigyan
Author(s): Vidyutprabhashreejiji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 13
________________ सपना जो साकार हुआ डॉ. विद्युत्प्रभाजी के शोध प्रबन्ध की प्रकाशन बेला में मैं निःसंदेह रूप से आह्लादित एवं प्रमुदित हूँ। यह मेरा लक्ष्य व सपना था कि वे डॉक्टरेट की मंजिल तक पहुँचे । अगर मैं यह भी कहूँ कि उन्होंने पी-एच. डी. करके मुझ पर एक अनुग्रह किया है तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । मैं उन्हे तब से जानता हूँ जब वे बोर्ड की परीक्षा दे चुकी थी । पदोन्नत होकर बाडमेर से मैं जोधपुर जा रहा था कि मुझे संदेश मिला कि साध्वीजी ने मुझे अपने अध्ययन के सिलसिले में याद किया है, तो मैं वहाँ पहुँचा और उनसे अध्ययन सम्बन्धी चर्चा हुई। उस समय उनके परिचय प्रभाव का दायरा अत्यन्त सीमित था । मैंने उन्हें सम्पूर्णत: आश्वस्त किया कि वे अध्ययन में आने वाली किसी भी समस्या से विचलित न होकर अपनी पढ़ाई जारी रखें। उसी दिन से उनकी व्यावहारिक शिक्षा सम्पूर्ण रूप से मैं जुड गया । उनकी राह में अनेकों बाधाएँ आईं। अध्ययन आरम्भ के कुछ ही दिनों बाद ही उनकी गुरुवर्याश्री का स्वर्गवास हो गया । निःसंदेह मुझे उनकी टूटी मानसिकता से लगा कि वे अब आगे नहीं पढ़ेंगी। मैंने उन्हें पूर्ण आत्मीयता के साथ एक पिता की भूमिका से समझाया । और मुझे हार्दिक संतोष है कि उसके बाद जितने भी अवरोध आये, उन सभी को पूर्ण प्रखरता से चीरती हुई वे आगे बढ़ती ही गई । साध्वी जी ने एम.ए. का अध्ययन पूरा कर लिया। मेरा मानस था कि वे सामान्य और सरल विषय चुनकर अतिशीघ्र डॉक्टरेट कर लें, पर यह पहला मौका था जब उन्होंने मेरी बात को अनसुना करके अपने ही तरीके से निर्णय लिया । उन्होंने शोध का विषय अत्यन्त गूढ़ परन्तु आगमिक चुना। ऐसा विषय चुना जो सामान्य समझ से परे था। पर अब चूँकि उनकी प्रज्ञा विकसित थी और अपनी प्रतिभा का वे शोध में उपयोग करना चाहती थीं, अतः मैंने विषय निर्धारण में उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया। वैसे मुझे और अधिक सन्तुष्टि थी कि वे जटिलतम विषय लेकर अपनी प्रज्ञा को पैना करना चाहतीं है । पर विषय निर्धारण के बाद उनकी गतिशील गाड़ी रुक गई । विहार का, परिचय का, शिष्याओं का और योजनाओं का विस्तार हो गया था। उसी में उनके समय का अधिकांश भाग गुजर जाता था । सन् १९९२ में उनका Jain Education International VII For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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