Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni

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Page 14
________________ ( १४ ) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. गुरु परंपराका ज्ञानसें रहित, हमारे ढूंढकों, सूत्रका परमार्थको समजे विना, जो मनेमें आता है सोही लिख मारते है । देखोकि, प्रथम पृ. ७३ में - इस ढूंढनीने, पूर्णभद्र, यक्षादिकों की, पथ्थरकी, मूर्तियांकी पूजासें, धन, दौलत, पुत्रादिक प्राप्त होते है, ऐसा लिखके, सब ढूंढकोंको, लालच में डाले || और टष्ट. १२६ में- “कयबलिकम्मा" के पाठार्थ में - नित्य ( दररोज ) कर्त्तव्य के लिये - वीर भगवान के भक्त श्रावकोंको, पितर, दादेयां, वावे, भूत, यक्षादिककी मूर्त्तिके पूजनेवाले बताये है । तो अब विचार करने का यह है कि वीतराग देवकी मूर्त्तिको पूजे तो मिध्यात्व, और अनंत संसारका हेतु, और पूजाका उपदेशक, कुमार्गमें गेरने वाले, ढूंढनीजीने लिख मारा। और भूतादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी मूर्त्ति पूजा, दररोज श्रावकों की पास करवानेका, ढूंढनीजी तो उपदेशको देने वाली, और इनके भोंदू ढूंढको, भूतार्दिक मिथ्यात्वी देवकी मूर्त्तिको, दररोज पूजने वाले, कौनसें खडडे में, और कितने काल तक रहेंगे, उनका प्रमाणभी तो, ढूँढनीजीने लिखके ही दिखाना चाहता था ? | पाठक गण जो तदन मूढताको प्राप्त होके जूठे जूठ लिखनेवाले है उनको हम क्या कहेंगे ? || केवल जूठ ही लिखने से, संतोषताको प्राप्त नहीं हुई है, परंतु आज तक शुधी जितने पूर्व धरादिक, महान् महान् आचार्यो हो गये है, उनका सर्वथा प्रकार वारंवार तिरस्कार करनेको, जगे जगें पर राक्षसी कलम चलाई है || क्योंकि इस ढूंढनीजीने - जैन धर्मके नियमका, एक पुस्तक, भिन्नपणेभी छपवा के उसका पृष्ट. १३ से इनका सत्यार्थ चंद्रोदयकी जाहीरात भी छपवाई है। उसका पृष्ट. १४ से लिखती है कि... इस पुस्तक में प्राचीन जैनधर्म दृढिये मतका सूत्रद्वारा मंडनही नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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