Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni

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Page 12
________________ ( १२ ) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. समजे विना-त्रण निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग विनाके, लिख मारा । तो पिछे गुरुज्ञान विनाकी ढूंढनजीको, निशीथ भाष्यका पत्ता नही लगनेसें, गपौडे कहैं, उसमें क्या आश्चर्य ? || (१४) पृष्ट. ११३ में ढूंढनीजी लिखती है कि-मंदिर, मूर्ति, मानने वाले आचार्योंने, सत्य दया धर्मका नाश कर दिया है । इत्यादि || १४ || पाठकवर्ग ! अलोकिक शांत मुद्रामय वीतराग भगवान्की भव्य मूर्त्तिका दर्शन होनेसें, ढूंढनीजीका क्या सत्यानाश हो जाता है ? जो जूठा रुदन करती है ? ॥ ( १२ ) पाठकवर्ग, चउद पूर्वके पाठक, श्रुत केवली, गिने जाते है । ऐसें जो भद्रबाहु स्वामीजी है, उनकी रची हुई - निर्युक्तियां, सोतो अनघडित गपोडे, ढूंढनीजी कहती है ? || १५ ॥ समजनेका यह हैकि, नियुक्तियां क्या वस्तु है, सोतो ढूंढनीजीको दर्शन मात्र भी हुये नहीं होंगे, परंतु अपनी जूठी पंडितानी पणाके छाकमें, चकचूर बनी हुई, चउदां पूर्वके पाठकोंभी, कुछ लेखामें ही, गीनती नही है ! | अहो हमारे ढूंढकोंमें, मूढताकी बताने क्या. जोर कर रख्या है ? | (१६) पृष्ट. १३३ में- पीतांबरी दंभ धारीने, जडमें, परमेश्वर बुद्धि कर रखी है । इत्यादि ।। १६ ।। पाठकवर्ग ! - इस ढूंढनीजीने- पृष्ट. १५४ में - ऐसा लिखाथा कि- महावीर स्वामीजीके पहिले भी - मूर्त्ति, होगी तो उसमें क्या आश्चर्य है ॥ और पृष्ठ. १५८ में - लिखती हैकि, यह संवेग पीतांबर, ( हाथ ) अनुमान अढाई सौ वर्ष निकला है || Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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