Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni Publisher: Ratanchand Dagdusa PatniPage 10
________________ ( १० ) ढूंढनीजीके-कितनेक, अपूर्ववाक्य. ॥ ढूंढकों, जो कुछ क्रिया करके दिखलाते है, सोभी तो गुstrict ही खेल हो जागया क्योंकि ढूंढक लोको भावको ही मुख्य पणे बतलाते है, तो पिछे दूसरी क्रियाओ करके, बतलाने की भी क्या जरुरी है ? | [९] पृष्ट. ६७ में - पथ्थरकी मर्त्ति घरके, श्रुति भी लगानी नहीं चाहीये ॥ इत्यादि ॥ ९ ॥ वीतरागी भव्य मूर्ति, ध्यानका मुख्य आलंबन है, परंतु ढंनीजीको, कितना द्वेषप्रज्वलित हुवा है ? || [१०] पृष्ट. ६८ में - मूर्तिपूजक तो, सर्व सावद्याचार्यके, धोमें आये हुये है । इत्यादि ।। १० ।। || गुरु विनाका तत्व विमुख लोकाशा वणीयेका, मनः कल्पित मार्गको पकडके चलनेवाले, सो तो, घोषेमें आये हुये नहीं ? वाहरे ढूंढनीजी वाह ? ॥ [११] . ६९ में - जिन मूर्त्तिका सूत्र पाठोंको, जूठा उहरानेके लिये, पूर्वके महान् महान् सर्व आचायोंको, कथाकार कहकर, पौडे लिखनेवाले ठहराय दिये है ।। इत्यादि ॥। ११ ॥ || इस ढूंढनीने आचार्यों का नाम देके, सूत्रकार गणधर महाराजाओं को ही, गपौडे लिखनेवाले ठहराये है ? और स्वार्थी दो चार पंडितों की पाससें, स्तुति करवायके ढूंढनीजी अपने आप साक्षात् ईश्वरकी पार्वतीका स्वरूपको धारण करके, और जैन सिद्धांतों से तदन विपरीतपणे लेखको लिखके, ढूंढोका, उद्धार करनेका, मनमें कल्पना कर बैठी है ? क्या अपूर्व न्याय दिखाया है ? ।। - (१२) टट. ७१ में ढूंढनीजी शाश्वती जिन प्रतिमाओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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