Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan
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श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
इय थोडं सत्थाहं, कहंति पजंलिउडा पमोएणं । इंदपसंसाईयं ते सव्वं पि हु नियसरूवं ॥ १६३॥ तो अणइच्छंतस्स वि, चिंतारयणं करंमि से खिविरं । उप्पइऊण गया लहु, ते देवा दो वि नियठाणं ॥१६४॥ सुरदत्तो व करट्ठयचितारयणो गिम्मि संपत्तो । पुज्जतचितियत्थो, कुणइ विसेसव्वयं धम्मे || १६५।। दसदिसिविक्खायजसो, उवचिणियउदग्गपुन्नपब्भारो । अकखंडाइँ दुवालस, वयाइँ पालित्तु चिरकालं ॥१६६॥ अच्चुयधम्मो आउ-क्खयम्मि मरिऊण अच्चुए कप्पे । बारसमे सुरदत्तो, जाओ देवो महड्डीओ ॥१६७॥ भुत्तूण तत्थ भोए, चविऊण इहेव लद्धमणुयभवो । पाविस्सइ अचिरेणं, सासयसुक्खाण सो उदयं ॥१६८॥ गृहस्थधर्मात् सुरदत्तनामा, सुधीरिहामुत्र भवेऽपि जज्ञे । धर्म्माच्युतो भाजनमच्युतद्धे - स्तन्निश्चलास्तत्र भवन्तु भव्याः ! ॥१६९॥ इत्युक्तं धर्मभेदाख्य- सप्तमद्वारमध्यगम् । गृहिधर्मस्य माहात्म्यं, सुरदत्तचरित्रतः ॥ १७० ॥ एवं ये जिनशासनोक्तविधिना सद्धर्म्मभेदानमून्, स्वीकुर्वन्ति निधिनिवोद्यतधियो दारिदुःखापहान् । सर्वेऽपि समीहितार्थपदवीमासाद्य सद्यो जना, जायन्ते शिवसम्पदां पदमिह त्रैलोक्यविस्मापकम् ॥१७१॥ सत्सूत्रकृत्श्रीप्रभसूरिशस्ये, प्रबोधशौर्योदयसिंहवृत्तौ । समर्थितं धर्म्मविधावितीदं भेदाभिधं द्वारमिहाश्वसङ्ख्यम् ॥१७२॥
द्वारं सप्तममुक्तं, प्ररूपितास्तत्र धर्म्मभेदाश्च ।
तेषां सम्यक्करणात्, किमिह फलं भवति भव्यानाम् ॥१॥
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