Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan
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३७९
[४] चतुर्थं परिशिष्टम्-श्रीधर्मविधिप्रकरणवृत्तौ सुक्तीनामकाराद्यनुक्रमः ॥ चिर अज्जियं पि छायं, हरड़ रवी कुनिव इव लच्छि॥ चिंतइ को इह गव्वो, बलियाण वि हुंति अइबलिया ॥ चिंतेइ सावि विक्खह, किं किं न करेइ कामंधो?॥ जं केसवं पि मुच्चइ, लच्छी ववसायपरिहीणं ॥ जं गडरिं जलंति को वि हुन खिवेइ नियगेहे ॥ जं धम्मविम्मुहम्मी, जणम्मि जुत्तं चिय उवेहो ॥ जं नीसारइ सगुण वि, जलहिवेलु व्व रयणाई ॥ जं परउवयाररया, सिढिलंति नरा सकज्जम्मि ॥ जं वाहीइ गयाए, विज्जो वयरि व्व पडिहाइ ॥ जं सक्को वि न सक्को, पुन्नधणे आवयं काउं ॥ जं सेलो वि सुरेहि, चालिज्जइ किन्न परमाणू ? ॥ जा वायइ ता दिटुं, कुमरो अंधीयतामेवं ॥ जाणंतनियमभंगे, पच्छित्तं कं गुणं जणइ ? ॥ जिणधम्मस्स तरुस्स व, मूलं पुण पभणिया करुणा ॥ जीवइ किच्चिरकालं, मीणो नीराउ नीहरिओ ॥ तणुछाय व्व तडत्था, सुस्सूसिस्सं वणे वि तुमं ॥ तव-नियमसुट्ठियाए अणि?सोगो न होइ जओ ॥ तह दुक्करं करेउं, न खमो पंगु व्व वेगमहं ॥ तह पुट्टम्मि य भरिए, भरियं मन्नेसि भंडारं ॥ तं नत्थि संविहाणं, संसारे जं न संभवइ ॥ ता एवमहं मन्ने "कुभोयणं लवणरसरहियं" ॥ ता वग्घदुत्तडीणं, नाए पडिओ कहं होमि ? ॥ तूसंति मह प्पाणो, न हि नियकुक्खिभरित्तेण ॥ ते वि तहेव चहुट्टा "पुनखए फलइ न उवाओ" ॥ तो तं भारं गिण्हसु, जं मुंचसि नेव अद्धपहे ॥ देसंतरोऽवि पत्ता, गुणिणो नज्जंति सगुणेहिं॥ धन्नो एस महप्पा, राओ रंको वि जस्स समो ॥ धम्मो देहाहीणो, देहं च विणा न आहारं ॥ न य निंदामो कंचि वि, समभावा हुंति जं समणा ॥ न हि बिंदुणा भरिज्जइ, अइगरुयेण वि नईनाहो ॥ न हि विरमइ तन्हा, वारणस्स तणुविवरनीरेण ॥ नट्ठा अभिसंकाए, “सव्वत्थ वि संकिया पावा" ।
४८-९७उ. ५१-१३३उ. ४४-१६९उ. ३३-१०६उ. ५१-१२३१उ. ३३-७०उ.
६-६७उ. ४८-३०उ. ४८-१२१उ. ५१-५२९उ. १७-१११उ. ३०-३१२उ. ३३-२७६उ. २१-१७१उ. ५१-१६२उ.
५१-७९उ. १४-१८५उ.
१७-६२उ. ५१-११८६उ. ५१-६३०उ. ५१-४००उ. ५१-१२३९उ. ५१-१३४९उ. ५१-१०७७उ. ४४-१४९उ. ३८-१०९उ.
५१-३७उ. ५१-३७८उ. ३८-१९९उ. ४४-१७८उ. ३३-१९१उ. ५१-१०४०उ.
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