Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan

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Page 415
________________ ३८० निच्चं सेविज्जंतो, कया वि तूसइ कवोओ वि ॥ नीहरइ तग्गिहाओ "दइवे रुट्ठम्मि को सरणं" ॥ पईमग्गगामिणीओ, जेण सईओ सया हुँति ॥ पहुमणअणुसारेणं, जम्हा भिच्चाण वि पवित्ती ॥ पाएण देइ सुमिणो, फलं वियाराणुमाणेण ॥ पायं निब्भयचित्ताण, होइ जं कत्थ वि न खलणा ॥ पिक्खइ जणो सलंतं, सेले न हु पायमूलम्मि ॥ बाले गए कडित्थे, नणु उयरठियस्स का आसा ? ॥ मइलिज्जइ जेण कुलं, कूलप्पसूयाण तमकिच्चं ॥ मज्जाराण व खीरं, समप्पियं रक्खणट्ठाए ॥ मसिबिंदु व्व न सोहइ, सियम्मि पक्खालिए वत्थे ॥ वत्थे इव उवविट्ठो, खणेण जिणधम्मरंगो सो ॥ विज्जस्स दंसिया खलु, स एव रोगीणं जं सरणं ॥ विहिलिहियअक्खराणं, उवरिं अवरु व्व एसविही ॥ विहिविलासियं व महिलाचरियं ही ही दुरहिगम्मं ॥ वुढेि विहिपरिणामं आसकुहक्कं च को मुणइ ? ॥ वेसाण सहावेणं, सधणे रागो न हि दरिद्दे ॥ वेसासंगो जम्हा, पडिसिद्धो सिद्धपुरिसाण ॥ सविसं दावंति दहि, “धिद्धी लोभस्स माहप्पं" ॥ संघस्स आणखंडणपराण, नणु होइ को दंडो ? ॥ सिंहस्स नेव सोहइ, परक्कम्मो जं सियालेसु ॥ हंसो माणसजाओ, किं खिल्लइ खाइयासलिले ? ॥ हियभासगेसु वेरं, तव्विवरीएसु मित्ततं ॥ श्रीधर्मविधिप्रकरणम् ५१-१०८६उ. ५१-१२४१उ. ५१-७८उ. ४४-६४उ. ३६-२०१उ. ३३-२३२उ. १४-८०उ. ५१-७२८उ. ३३-२०८उ. ५१-२४उ. ५१-८७८उ. १४-२२७उ. ५१-५७७उ. १४-३१५उ. ३७-५८उ. ५१-९०३उ. ५१-१२०९उ. ३६-३२उ. १४-३८८उ. ४४-२१९उ. ३८-४८उ. ५१-१०२५उ. ३३-३७उ. Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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