Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 387
________________ ३५२ 10 श्रीधर्मविधिप्रकरणम् मासव्वहा वि भायसुं , मित्त तुम एस पुट्ठरक्खो हं । मइ जीवंते को वि हु न, खमो रोमं पि तुह गहिउं ॥१२५०।। अह आरोविय चावो, पिढे दढबद्धभत्थओ अभओ । पुरओ पुरोहियं तं पणाममित्तो कुणइ सहसा ॥१२५१॥ तत्तो पुरोहिओ सो, पत्तो सह तेण चिंतियं ठाणं । अणुभवइ य निस्संको, तत्थ जहिच्छं विसयसुक्खं ॥१२५२॥ "इत्थ य भावत्थोऽयं, एस जिओ सोमदत्तसंकासो । सहमित्तमित्ततुल्लो, एसो देहो य देहीणं ॥१२५३।। जमिमो देहो दुक्कम्म-निवइ विहियम्मि मरणवसणम्मि । जीवेण पोसिओ वि हु , नागच्छइ सह मणागं पि ॥१२५४॥ सव्वे वि सयणवग्गा, सारिच्छा पव्वमित्तमित्तस्स । ते वि हु मसाणचच्चर-मणुगच्छित्ता नियटुंति ॥१२५५॥ धम्मो पणाममित्तस्स, सन्निभो सयलसुक्खसंजणगो । जो जीवे गच्छंते, सहेव गच्छइ परत्तावि ॥१२५६।। ता इहलोइयसुक्खा-कंखामूढे ! मणस्सिणि ! पिए ! हं । परलोयसुहं धम्मं, नोविक्खिस्से मणागं पि" ॥१२५७।। "अह जयसिरी पयंपइ, अट्ठमभज्जा तुमं पि हे नाह । कूडकहाणेहि परं, नागसिरी इव विमोहेसि ॥१२५८॥ रमणीयाभिहनयरे, कहापिओ नरवई पइदिणं सो । निद्दिसिय वारएहिं, कहं कहावइ पुरजणाओ ॥१२५९।। तम्मि पुरे आसि तया, एगो दारिद्दजम्मभूविप्पो । भमिऊण दिणं सयलं, सो कणभिक्खाइ जीवेइ ॥१२६०॥ अह अन्नदिणे तस्स वि, विप्पस्स निरक्खरस्स संजाओ। निवइस्स कहाकहण-म्मि वारओ तो स चिंतेइ ॥१२६१।। नियनामस्स वि कहणे, मह जीहा सन्निवायभरिय व्व । खलइ सया ता तीसे, का नाम कहा कहाकहणे ॥१२६२॥ 15 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426