Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan
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अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
३६१ अह सिरिसुहम्मपहुपय-नमंसणत्थं पुरीजणो सव्वो । अहमहमिगाइ चलिओ, उज्जाणीइ व्व पुर बाहिं ॥१३६७॥ के वि हु तुरयारूढा महिड्डिया तं नंसिउं जंति । सियछत्तपुंडरायं, कुव्वंता गयणसरलच्छि ॥१३६८।। काओ वि नायरीओ, नेउरझंकारवज्जिराउज्जा । चलघ(थ)टुंतकरेहिं, नच्चंतीउ व्व वच्चंति ॥१३६९।। हिययधरिया वि हारा, तइया वच्चंतनायराणं पि । मुत्ताहलजंभत्तं व, पिक्खिउं खंडसो हुँति ॥१३७०॥ तीइ पुरीए तइया, सिरिकोणियनरवरो कुणइ रज्जं । सो तं जंतं लोयं, दटुं पुच्छेइ पडिहारं ॥१३७१।। किं का वि अज्ज जत्ता, इत्थ पुरासन्नदेवभवणम्मि । कस्स वि महिड्डिणो किं, उज्जमणमहूसवो को वि ॥१३७२॥ किं को वि गणहरिंदो, समोसढो अज्ज बाहिरुज्जाणे । जं एवं सव्वो वि हु , वच्चइ नयरीजणो बाहिं ॥१३७३॥ तो पडिहारो गंतुं , परमत्थं जाणिऊण विन्नवइ । सामिय ! पुत्तो चिट्ठइ, अज्जेह सुहम्मगणहारी ॥१३७४।। तच्चरणकमलसेवा-लुद्धो भमरु व्व जाइ एस जणो । एगायवत्तजिणवर-धम्मं तुह विजयए रज्जं ॥१३७५॥ अह हरिसिएण भणियं, रण्णा धन्नो पुरीजणो एसो । जो इय जाइ सवेगं, गणहरनमणे ससंवेगं ॥१३७६।। जग्गंतो वि हु जाओ, सुत्तावत्थो अहो अहं अज्ज । जं सिरिसुहम्मसामि, समोसढं पि हु न याणामि ॥१३७७॥ ता गंतूणं गणहर-पाए वंदामि अहमवि सवेगं । इय आसणाउ उट्ठिय-परिहइ चंदुज्जले वत्थे ॥१३७८॥ उल्लसियहारकुंडल-पमुहलंकारपुण्णसव्वंगो ।
कप्पद्रुम व्व अवरो, आरुहिओ गयवरक्खंधे ॥१३७९॥ १. मुत्ताहलजं मत्तं व पाठान्तरम् ।
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