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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् मासव्वहा वि भायसुं , मित्त तुम एस पुट्ठरक्खो हं । मइ जीवंते को वि हु न, खमो रोमं पि तुह गहिउं ॥१२५०।। अह आरोविय चावो, पिढे दढबद्धभत्थओ अभओ । पुरओ पुरोहियं तं पणाममित्तो कुणइ सहसा ॥१२५१॥ तत्तो पुरोहिओ सो, पत्तो सह तेण चिंतियं ठाणं । अणुभवइ य निस्संको, तत्थ जहिच्छं विसयसुक्खं ॥१२५२॥ "इत्थ य भावत्थोऽयं, एस जिओ सोमदत्तसंकासो । सहमित्तमित्ततुल्लो, एसो देहो य देहीणं ॥१२५३।। जमिमो देहो दुक्कम्म-निवइ विहियम्मि मरणवसणम्मि । जीवेण पोसिओ वि हु , नागच्छइ सह मणागं पि ॥१२५४॥ सव्वे वि सयणवग्गा, सारिच्छा पव्वमित्तमित्तस्स । ते वि हु मसाणचच्चर-मणुगच्छित्ता नियटुंति ॥१२५५॥ धम्मो पणाममित्तस्स, सन्निभो सयलसुक्खसंजणगो । जो जीवे गच्छंते, सहेव गच्छइ परत्तावि ॥१२५६।। ता इहलोइयसुक्खा-कंखामूढे ! मणस्सिणि ! पिए ! हं । परलोयसुहं धम्मं, नोविक्खिस्से मणागं पि" ॥१२५७।। "अह जयसिरी पयंपइ, अट्ठमभज्जा तुमं पि हे नाह । कूडकहाणेहि परं, नागसिरी इव विमोहेसि ॥१२५८॥ रमणीयाभिहनयरे, कहापिओ नरवई पइदिणं सो । निद्दिसिय वारएहिं, कहं कहावइ पुरजणाओ ॥१२५९।। तम्मि पुरे आसि तया, एगो दारिद्दजम्मभूविप्पो । भमिऊण दिणं सयलं, सो कणभिक्खाइ जीवेइ ॥१२६०॥ अह अन्नदिणे तस्स वि, विप्पस्स निरक्खरस्स संजाओ। निवइस्स कहाकहण-म्मि वारओ तो स चिंतेइ ॥१२६१।। नियनामस्स वि कहणे, मह जीहा सन्निवायभरिय व्व । खलइ सया ता तीसे, का नाम कहा कहाकहणे ॥१२६२॥
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