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अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
जइ कह वि कहं कहिउं, नाहं जाणामि इय भणिस्सामि । ता गुत्तिगिहे खिप्पि-स्सामि धुवं का गई मज्झ ॥१२६३॥ पुत्ती तस्स कुमारी, सा तं चिंताउरं निरिक्खित्ता । पुच्छइ का तुह चिंता, सो तीसे कारणं कहइ ॥१२६४।। पुत्तइ भणइ तुमं मा, चिंतासंतावभायणं होसु । तुह वारयम्मि गंतुं , कहं कहिस्सामि अहमेव ॥१२६५॥ अह तम्मि दिणे ण्हाउं, सियवत्थे परिहिउं च निवपासे । गंतूण जयासीसं, दाउं निवमाह सुणसु कहं ॥१२६६।। निवई वि तत्थ तारिस-निक्खोहत्तेण विम्हिओ तीसे । टहरियकन्नो जाओ, मिगु व्व गीइं कहं सोउं ॥१२६७॥ सा आरंभइ कहिउं, नयरे इत्थेव माहणो अत्थि । नामेण नागसम्मो, कणभिक्खाभवणवसजीवो ॥१२६८॥ तब्भज्जा सोमसिरी, तक्कुक्खिसमुब्भवा अहं पुत्ती । नागसिरीनामेणं, पत्ता चिट्ठामि तरुणत्तं ॥१२६९॥ मायापिऊहि इत्तो, दिन्ना चट्टस्स विप्पपुत्तस्स । जं नियसंपइसरिसो, महिलाण वरो इह वहेइ ॥१२७०॥ अह कम्मि वि वीवाहिग-पओयणे अन्नया मह पिऊणि । गामं पत्ताइ ममं, गिहम्मि एगागिर्णि मुत्तुं ॥१२७१॥ गामंतरं गयाइं, पिऊणि मह जम्मि चेव दियहम्मि । तद्दिवसं चिय पत्तो, स विप्पचट्टो वि गेहम्मि ॥१२७२॥ संपइ अणुसारेणं, विणा वि मायापिऊण तस्स तया । ण्हावणजिमावणाई-कओ मए उचियसम्माणो ॥१२७३।। तो नियगिहसव्वस्सं, खट्टापत्थरणयं तहा एगं ।। सयणाय तस्स संझा-समयम्मि समप्पियं च मए ॥१२७४॥ हिययम्मि चिंतियं तो, खट्टाचट्टस्स अप्पिया इहि । बहुयबिलसप्पबहुले, भूमितले कह सइस्से हं ॥१२७५॥
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