Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan
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श्रीधर्मविधिप्रकरणम् सो वायसो वि बुड्डो, आधारविवज्जिओ समुद्दम्मि । पाणेहि वि परिचत्तो, जलम्मि निवडणभयाउ व्व ॥७५८।। सुणसु पिए ! इह भावं, विवन्नवणकरिसमाउ नारीओ । सायरसरिसो य भवो, पुरिसो पुण वाससमाणो ॥७५९॥ तो भद्दे ! भवईसुं , गिद्धो हं करिकलेवरनिभासु । एयम्मि भवसमुद्दे, न हि निवडिस्सामि कागु व्व" ॥७६०॥ "अह बीया तब्भज्जा, पउमसिरी आहनाह ! तुममम्हे । अवमन्नंतो एवं, वानर इव तप्पसे पच्छा ॥७६१॥ जह एगम्मि अरण्णे, अन्नुन्नं बद्धगाढनेहाई । जायाइ वानरो वा-नरी य अदिट्ठविरहाई ॥७६२॥ अहिणवपरिणीयाणि व, समगं भुंजंति ताइ एगत्थ । सह जग्गंति सुवंति य, नयणाणि व समसुहदुहाइं ॥७६३।। अन्नदिणे गंगाए , तीरे वंजुलतरुम्मि सिच्छाए । कीलंताणं ताणं, पडिओ भुवि वानरो सहसा ॥७६४॥ सो वानरो खणेण वि, पभावओ तस्स दिव्वतित्थस्स । संजाओ सुरसरिसो, पुरिसो विज्जाबलाउ व्व ॥७६५॥ नररूवत्तं पत्तं, तं दटुं वानरी वि नारित्तं । वंछंती झंपावइ, सइ व्व पइमग्गमणुलग्गा ॥७६६॥ तो वानरी वि नारी, जाया सुरसुंदरी सरिसरूवा । आलिंगइ तं पुरिसं, अहिणवउल्लसियपिम्मेण ॥७६७॥ पुव्वभववानराणि व, ताइं विलसंति तत्थ सिच्छाए । अविओगियाइ अणिसं, विभावरीरयणिनाहु व्व ॥७६८॥ अन्नदिणे नियनारिं, जंपइ वानरनरो पिए ! सुणसु । जह पत्ताइ नरत्तं, तह होमो संपइ सुराणि ॥७६९॥ पभणइ नारी पिययम !, किमसंतोसेण भूरिणा अम्ह । नररूवाणि वि जम्हा, देवाणि व भुंजिमो भोगे ॥७७०।।
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