Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan
View full book text
________________
३३७
अष्टमं सद्धर्मफलद्वारम्
संखं धमिज्ज नवरं, नाइधमिज्जा न सुंदरं जेण । जं धमणाओ लद्धं, अइधमणाओ गयं तं पि ॥१०५५॥ ता सामिय ! अइयारो, तुज्झ वि काउं न जुज्जइ इत्थ । अम्हे वि किं पि मन्नसु, मा अवगन्नसु उवलकढिण !" ॥१०५६।। "तो जंपइ जंबुपहू , तं पि पियं अंबुसीयलगिराए । सेलेयवानरो इव, न बंधणे हं पडिस्सामि ॥१०५७।। सुमसु पिए ! विंझगिरी, अत्थि अवंझो सया वणसिरीए । वानरजूहाहिवई, तत्थेगो वानरो आसी ॥१०५८।। कुमरु व्व विंझगिरिणो, कीलइ वणकंदरेसु सिच्छाए । मारइ य जूहजाए, सो अवरे वानरे सव्वे ॥१०५९॥ सह वानरीहि एगो, सु च्चिय विलसइ महाबलो नन्नो । वित्थारंतो तत्थ य, इत्थीरज्जस्स सुहलिलं ॥१०६०॥ अह को वि वानरजुवा, अन्नदिणे तत्थ आगओ एगो । सो वानरीण विंदं, तं पिक्खिय जूहमणुलग्गो ॥१०६१॥ कीसे वि वानरीए , चुंबइ चिरपरिचउ व्व सो वयणं ।। 15 बिल्लदलबीडियाओ, कीसे विमुहम्मि पक्खिवइ ॥१०६२।। गुंजामयं च हारं, काउं कंठम्मि देइ कीसे वि । केयइरेणुहि सयं, कीसे वि मुहं च पिंजरइ ॥१०६३॥ एवं वानरनारीहि, ताहिं सह सो रमेइ निस्संकं ।। तासिं जूहाहिवइं, अमुणंतो इव भुयबलेण ॥१०६४॥ अह वानरीहि काहि वि, तं वियरिज्जंतसहमरोमचयं । काहि वि वीइज्जंतं, कदलीदलतालियंटेहि ॥१०६५॥ काहि वि नहंकुरेहिं, कंदूइज्जंतदीहलंगूलं । काहि वि कयावयंसं, कोमलनालेहि नलिणीए ॥१०६६।। तुंगगिरिसिंगचडिओ, स जूहनाहोऽह वानरजुवाणं । तं तह दटुं सहसा, कोवंधो धाविओ ज्झत्ति ॥१०६७॥
25
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426