Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan
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एवं हवउत्ति फुडं, भणिउं जक्खो अदंसणं पत्तो । बुद्धी विहु लोभंधा, संजाया तक्खणं अंधा ॥ ११२०॥ एवं दुब्बुद्धीए, बुद्धीए अहियरिद्धिलुद्धाए । एवं चिय मुद्धा, सयमेव विडंबिओ अप्पा ॥११२१ ॥ ता नाह ! मणुरिद्धि, लद्धूण वि अइसिरिं समीहंतो । अंधथविराइ तीए, पडिरूवो भन्नसि जणेण ॥११२२ ॥ "जंबू जंपेइ पिए !, केण वि निज्जामि उप्पहं न अहं । चिरदिट्ठमग्गगामी, अस्सकिसोरु व्व तं सुणसु ॥ ११२३|| जियसत्तु त्ति नरिंदो, वसंतपुरपट्टणम्मि जियसत्तू । तस्स य जिणदासाभिह - सिट्ठी वीसंभकुलभवणं ॥ ११२४ ॥ अन्नदि नरवइणो, पयंसिया अस्सपालयनरेहिं । रेवततणुभवा इव, अस्सकिसोरा सुलक्खणिणो ॥ ११२५ ॥ तो रन्ना आइट्ठा, तुरंगलक्खवियारगा पुरिसा । के लक्खणसंपूण्णा, इमेसु तुरगा इय कहेह ॥ ११२६॥ एगं अस्सकिसोरं, जहुत्तलक्खणघरं निरूवित्ता । अक्खति ते निवइणो, वियारिडं लक्खणे तस्स ॥ ११२७॥ एसो वट्टुलखुरओ, जंघाखुरअंतरेसु दढसंधी । निम्मंसजाणुजंघा - वयणो तह उन्नयक्खंधो ॥ ११२८॥ सुसिणिद्धरोमदंतो, पंकयपरिमलसमाणनीसासो । सुपिहुलपुट्ठिपएसो, लहुकन्नो गूढवंसो य ॥ ११२९॥ दुट्ठावत्तविरहिओ पहाणआवत्तदसगपरिकलिओ । एसो आसकिसोरो, पोसइ नियसामिणो लच्छि ॥११३०॥ राया विसयं विन्नू, वियाणिउं तं सुलक्खणोवेयं । अइजच्चकुंकुमाविल-जलेण तं सिंचए सयलं ॥११३१॥ अह पुप्फवत्थपूयं, काऊण तुरंगमस्स तस्स सयं । कारावइ नरनाहो, अह लवणुत्तारणाईयं ॥ ११३२॥
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श्रीधर्मविधिप्रकरणम्
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