Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan

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Page 375
________________ ३४० 5 10 श्रीधर्मविधिप्रकरणम् नियउयरपूरणे वि हु , असमत्था जा सया वि संजाया । सा उद्धरे वि दीणे, लच्छीए जक्खदिन्नाए ॥१०९४॥ तं बुद्धिगिहे लच्छि, दटुं संजायमच्छरा सिद्धी । चिंतइ कत्तो जाया, "याए एरिसा रिद्धी ॥१०९५।। ता पुव्वसहित्तेणं, एयं विस्सासिऊण पुच्छामि । इयरिद्धिलाभमसमं, काउं चाटुयसयाई पि ॥१०९६॥ तो सिद्धी संपत्ता, बुद्धिगिहे पियसहि ! त्ति जंपंता । काऊण चाडु एसा, तं पत्थावे भणइ एवं ॥१०९७॥ पियसहि ! इत्तियविहवो, तुमए कत्तो अचिंतिओ पत्तो । चिंतामणि व्व लद्धो, संभाविज्जइ तुह सिरीए ॥१०९८।। किं तुह रायपसाओ, जाओ तुट्ठा य देवया का वि । किं को वि रसो सिद्धो, लद्धो कत्थ वि निही अहवा ॥१०९९॥ तुमए रिद्धिमईए , पियसहि ! जाया अहं पि रिद्धिमई । दारिददुहाण मया, दिन्नो य जलंजली अज्ज ॥११००॥ तुमए अहं मए तं, भेओ पीईइ अम्ह नो देहे । अन्नुन्नं च अकत्थं, न किं पि ता कहसु कह रिद्धी ॥११०१।। तब्भावं अमुणंती, बुद्धी अक्खइ जहातहं तीसे । आराहिएण मह सहि !, जक्खेण इमा सिरी दिन्ना ॥११०२॥ तं सोउं सा सिद्धी, थविरा चिंतइ मणम्मि साहु इमो । दव्वज्जणे उवाओ, निरवाओ जुज्जइ ममावि ॥११०३॥ एईए सविसेसं, अहं पि आराहयामि जक्खमिमं । जह बुद्धिसमब्भहिया, संपज्जइ संपइ मज्झ ॥११०४।। अह अत्थसिद्धिहेडं, सा सिद्धी बुद्धिदंसियदिसाए । उज्जुत्ता तं जक्खं, अणुदिणमाराहए एवं ॥११०५॥ खडियाधाऊहि सयं, दुवारसोवाणभित्तिभूमीओ। मंडइ जक्खस्स गिहे, भत्तीइ विचित्तभत्तीहिं ॥११०६॥ 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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