Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan
View full book text
________________
३३०
श्रीधर्मविधिप्रकरणम् जीए मइ रत्ताए, सहसा माराविओ नियपई वि । खणरागिणी हलिद्दा, इव होही मज्झ वि दुहाय ॥९६६॥ इय चिंतिउं स चोरो, वत्थाभरणाइ गिहिउं तीसे । तं पच्छा पिक्खंतो, झत्ति पणट्ठो कुरंगु व्व ॥९६७।। करिणि व्व उज्झियकरा, सा जहजाय व्व विवसणा भणइ । तं गच्छतं पिक्खिय, कह मं मुत्तूण जासि तुमं ॥९६८॥ चोरो भणइ विवसणं, तुममेगं सरवणम्मि संलीणं । रक्खसिमिव दट्टणं, बीहेमि तए कयं मज्झ ॥९६९।। इय अक्खिउं खगो इव, उड्डीणो सो अदंसणं पत्तो ।
सा दिन्नगल्लहत्था, रहिया तत्थेव उववि(व)सिउं ।।९७०॥ "अह सो वि मिठजीवो, देवत्तं पाविऊण अवहीए । पुव्वभवं सुमरंतो, तं पिक्खइ तह ठियं दीणं ॥९७१।। तो करुणाइ स देवो, तीसे पडिबोहणत्थमागंतुं । मुहगहियमंसपिंडं, सियालमेगं विउव्वेइ ।।९७२।। तत्तो तीइ नईए , तीरे नीराउ निग्गयं मीणं । भुत्तुं पहाविओ सो, मुहाउ मुत्तूण तं मंसं ॥९७३॥ तो तक्खणेण मीणो, झत्ति पविट्टो नइप्पवाहम्मि । गहिया य तव्विउव्विय-सउणीए मंसेपेसी वि ॥९७४॥ सा असई नइतीरे , निरिक्खिउं तं तहा सरवरणत्था । जंपइ दुहदीणा वि हु, सकोउगा जंबुयं एवं ॥९७५।। परिचइय मंसपेसि , हे बुद्धिविहीण ! मीणमिच्छसि । चुक्को दुण्हं पि तुमं, किं जंबुय ! पिक्खसि इयाणि ॥९७६॥ तो जंबुएण भणियं, निययपई चइय परनरं रमसि । दुण्हं पि तुमं चुक्का, किं चिंतसि नग्गिए ! अहुणा ॥९७७।। तं सोऊण भयाउल-हिययो तीइ मिठदेवो सो । निययमहिट्ठियरूवं, दंसंतो इय पयंपेइ ।।९७८।।
15
25
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426