Book Title: Dharmvidhiprakaranam
Author(s): Shreeprabhsuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 351
________________ ३१६ 10 श्रीधर्मविधिप्रकरणम् ता नाह ! अम्ह भणियं, अगणंतो पत्तविसयसुहविमहो । सो वानरु व्व तुममवि, तप्पंतो किं पि न लहेसि" ॥७८४॥ "जंपइ जंबूकुमरो , सच्चमिमं हे पउमसिरिकंते ! । किं तु विसएसु तिसिओ, नाहं अंगारकारु व्व ।।।७८५।। जह पुव्वं अडवीए, पत्तो अंगारकारओ को वि । अंगारकरणहेउं, गिम्हे गहिओदगो पाउं ।।।७८६॥ एगागी अंगारे, कुव्वंतो वह्नितवियसव्वंगो । तह तवणतावतत्तो, जाओ अच्चंततिसिओ सो ॥७८७।। तणुसेगेण वरागो, वारंवारं च वारिपाणेण । सो वणकरि व्व सव्वं, पासठियं निट्ठवइ सलिलं ॥७८८॥ सव्वेणावि जलेणं, पीएणंगारकारिणो तस्स । तण्हा न मणागं पि हु, उवसमई अग्गितिल्लं व ॥७८९॥ तत्तो जलासयं पइ, सो चलिओ जाव सलिलपाणकए । ताव वरागो पडिओ, तण्हंधो अद्धमग्गे वि ॥७९०॥ सो निवडंतो कस्स वि, रुक्खस्स तलम्मि दिव्वजोगेण । पडिओ सीयलछायाइ, अमयवावीसमाणाए ॥७९१॥ अह आसासिज्जंतो, तरुमूले तीइ सीयछायाए । सो पावेइ मणागं, सुहवारितरंगिणि निदं ॥७९२।। सुमिणम्मि वाविसरवर-कूवाईए जलासए सव्वे । सोसेइ सो मंत-प्पउत्तअग्गेयबाणु व्व ॥७९३॥ तह वि अविच्छिन्नो, तण्हाए सो जलं गवसंतो । पिक्खेइ अंधकूवं, एगं पंकाउलजलिल्लं ॥७९४॥ तो दब्भमयं रज्जु , काउं कुसपूलयं निबंधित्ता । पक्खिवइ तम्हि कूवे, बोलेइ य तज्जले गडुले ॥७९५।। अह पूलयमाकड्डिय, तग्गलियजलं लिहेइ जीहाए । तह वि न तिप्पइ एसो, कहं पि दाघज्जरत्तु व्व ॥७९६।। 15 20 25 Jain Education International 2010_02. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426