Book Title: Dharmopadeshmala Vivaran
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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अभाव-चरणे सुबन्धुसचिव - कथा ।
१३९
अहं तए परिचत्तो, तुह संतिएण य भोइणा संवड्डिओ, ता जं ते परिणाम-सुंदरं तं मुह [s] यं पि भणियवं ति ।
"मुह - महुरं' परिणइ - मंगुलं च गेण्हंति दिंति उवएसं । मुह - कडुयं परिणइ - सुंदरं च विरल च्चिय नरिंद ! ॥ "
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ता इमस्स वीसास - घाइणो चाणकस्स न वीससियवं, जेण भे जणणीए पोट्टं फाडियं' । तओ पुच्छिया रायणा थणधाई । तीए वि तह ति सिठ्ठो । रुट्ठो राया चाणकस्स | चिंतियं च णेण । आरोविओ अनिउत्ती- कोवो सुबंधुणा राहणो, आओ य मे मरण - कालो, ता तह करेमि, जहा एसो वि न संसार - निबंधणं विसय- सुहमणुहवइ । जोग-मंताइएहिं संजोइऊण गंधे लिहियं भुजं । भुत्रेण सह पक्खित्ता समुग्गयम्मि, ढकिऊण घोडि (लि) ओ जत्त (तु) णा । समुग्गओ वि पक्खित्तो " मंजूसाए, सावि ढकिया तालय-सएण । तओ जिण साहु- संघ-समण- बंभण- पमुहाइयाण दाऊण घर-सारं ठिओ नगरासने इंगिणि-मरणेण । मुणिय- जहट्ठिय-जणणीए मरणवृत्तंतो संजाय - पच्छायाचो सबल-वाहणो पत्तो बिंदुसारो । सबहुमाणं खामिऊण भणिओ चाणको - 'एहि, वच्चसु पाडलिपुत्तं, अहिट्टिसु रज' ति । तेण भणियम् - अलमेयाए संकहाए, परिचत्तं मए सरीरं पि' । तओ जाणिऊण से निच्छयं गओ राया । 'मा पुणो समुप्पण्ण- पच्छायावो आगमिस्सर' त्ति मण्णमाणेण भणिओ सुबंधुणा राया- 'अहं 'चाणकस्स पूर्यं करेमि । एवं भणिए काऊण पूयं मोक ( को ) करीस - मज्झे अंगारो, तेण य जलणी भ्रूण दड्ढो चाणको । सुबंधुणा समुप्पण्ण- दव-लोभेण चाणक - गेहं राया मग्गओ, दिनं, पविट्ठो । तत्थ उग्घाडियं तालय सयं पि, जाव मंजू सि-मुत्तं न किंचि द दिट्ठ | 'अवो ! एयाए मंजूसाए जमित्थ सारभूयं तं हविस्सई' । विहाडियाए दिडो जतु ( उ )णा घोलिओ समुग्गओ । 'हंत । एत्थ रयणाणि भविस्सइ ( स्संति ) ' मण्णमाणेण विहाडिओ समुग्गओ । दिट्ठा मघमघंता गंधा । ते अग्घाइऊण निरूविय - समुग्गयअभितरं दिट्टं अक्खर - सणाहं भुजं । 'अहो ! सुवण्ण-रयणाइ- संखा इत्थ भविस्सर ' भाविंतो वाइयं (उं) पयत्तोति । अवि य -
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अग्घाऊण एए जो गंधे मुणिवरोव न हु चिट्ठे | सो तक्खण-मेणं वच्च (च्चि) स्सइ अंतय- घरम्मि ॥ संजाय-विसाएणं पुरिसं जंघा ( अग्घा ) विऊण ते गंधे ।
जाविओ य भोगे जा पत्तो तक्खणा मरणं ॥ तो सो जीव-हे वत्थालंकार - कुसुम - तंबोलं । इत्थी घरं पुत्ते रयणाणि उबंधु- सुहि-सयणे ॥
मसावि नेय झायइ मुणि व तव-नियम - सो सिय- सरीरो । विरह धम्म-विहूणो निय-जीविय कारणा मंती ॥ उवणओ कायति ।
॥ सुबंधु-कहाणयं समत्तं ॥
१६. क. ज. मुहु । २ ह. क. ज. मुहु । ३६. क. तव्वम्मि य० । ४६. क. ज. सं ।
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