Book Title: Dharmopadeshmala Vivaran
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 199
________________ धर्मोपदेशमालायाम् करि-कन्न-चंचलेसुं माणुस-सारीर-दुक्ख-हेउसु । तुच्छेसु असुइएसुं भोगेसुं मुच्छिया संता ।। हिंसा-ऽलिय-चोरत्तण-मेहुण्ण-परिग्गहेसु आसत्ता । मरिऊण काल-मासे नरयं(ग) वञ्चंति कय-पावा ॥ ॥ कूवष-भव(जर)-ऋग्वाणयं 'समत्तं ॥ संदेहं संपत्तो मुणिणो पुच्छिज्ज मुणिय-जिण-वयणा । जह सेणिएण पुट्ठो जाया-चरियं महावीरो ॥ ५४ [सन्देहं सम्प्राप्तो मुनीन् पृच्छेत् मुणित(ज्ञात)-जिनवचनान् । यथा श्रेणिकेन पृष्टो जाया-चरितं महावीरो ॥ ५४] -> [७४. सन्देह-पृच्छायां श्रेणिक-कथा ] - सेणिओ चरिम-पोरुसीए भगवओ वंदण-वडियाए गओ सपरिवारो । आगच्छंतेण य पओसे दिट्ठो पडिमा-गओ मुणी, वंदिओ भाव-सारं । चेल्लणाए वि सुह-पसुत्ताए य निग्गओ पंगुरणाओ बाहिं हत्थो, कट्ठीहूओ सीएण । तओ तं मुणिं संभरिऊण भणियमणाए- 'स तपस्वी किं करिष्यति ?' । सोऊण य चिंतियं सेणिएण- 'अबो! 15 पाएण दिन्न-संकेया कस्स वि, तेणेवं भणई' त्ति । पहाए भणिऊण अभयं 'अंतेउरं दहसु' त्ति गओ भगवओ वंदण-वडियाए । पुच्छिओ भगवं- 'किं चिल्लणा एगपत्ती अणेग-पत्ती वा ?' । भगवया भणियं .. 'देवाणुप्पिया! एगपत्ती' । तओ संजायपच्छायावो पहाविओ नयराभिमुहं । अभओ वि सुन्न हथिसालं पलीविऊण पयट्टो तित्थयर-वंदणत्थं । पुच्छिओ सेणिएण - 'किं लाइयं अंतेउरं?' । तेण भणियं20 'आम' । सेणिए[ण] भणियं - 'कीस तुमं न तत्थ पविट्ठो?' । तेण भणियं - 'अलं मज्झ जलण-दाहेण, पवज्जं काहामो' । तओ 'मा विसायं गच्छउ' त्ति मण्णमाणेण साहिओ सब्भावो त्ति । उवणओ कायबो त्ति ॥ ॥ सेणिय-क्वाणयं 'समत्तं ॥ जीयं(बं) अथिरं पि थिरं धम्मम्मि कुणंति मुणिय-जिण-वयणा । गिहिणो अभय-सरिच्छा रयणाणं तिकोडि-नाएण ॥ ५५ [जीवमस्थिरमपि स्थिरं धर्मे कुर्वन्ति मुणि(ज्ञा)तजिण(न)वचनाः । गृहिणोऽभय-सदृशा रत्नानां त्रिकोटि-ज्ञातेन ॥ ५५] गृहिणोऽपि, अनापिशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः । ज्ञातम्-उदाहरणम् । कथमिदम् ? - १ ह. क. ज. सं°। २ ह. क. ज. जण । ३ क. ज. भा। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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