Book Title: Dharmopadeshmala Vivaran
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 229
________________ धर्मोपदेशमालायाम् तओ समुप्पण्ण-कोवानलेण भणियं विण्हुसाहुणा- 'तहा वि तिण्ह पयाणं ठाणं देखें। तओ भणियमणेण-'एवं ता जइ तिण्ह पयाणमुवरि पेच्छिस्सामो तमवस्सं लुय-सीसं करेस्सामो' । तओ समुप्पण्ण-दारुण-कोवानलो बड्ढिउं पयट्टो त्ति । अवि य कत्थइ कयंत-सरिसो, संताविय-सयल-तिहुयणाभोगो। कत्थइ तरुणरवि-णिभो, निण्णासिय-तिमिर-निउरंबो ॥ कत्थइ चंद-सरिच्छो, निय-कर-पडिवन-महिहराभोगो । कत्थइ सुरिंद-सरिसो, विउरुविय-लोयण-सहस्सो॥ कत्थ य पलय-हरि-समो, उम्मूलिय-गिरि-गणाभोगो। कत्थइ तिणयण-सरिसो, खणमेकं सीस-ठिय-चंदो ॥ कत्थ य मयण-सरिच्छो, निय-रूवावयव-तुलिय-जियलोगो। कत्थइ फुरंत-चको संगामे भरहनाहो छ । किरीडी कुंडली माली दिवरुई महजुई ।। धणुवाणी वञ्जपाणी य दिव-खग्गी महाबली ॥ इय नाणाविह-रूवो वडेतो सो कमेण मेर(रु)-समी । जाओ जोयण-लक्खो सुवन्न-वररयण-सोहिल्लो ॥ उच्छलिया जलनिहिणो रंगंत-तरंग-मच्छ-पडहत्था । भय-वेविर-तरलच्छा दिसागइंदा विओ नद्धा(ट्ठा)। महु-मत्त-कामिणी विव पयंपिया दीव-काणण-समेया। वसुहा पडिपड-हुत्तं सरिया संपट्ठिया सवा ॥ फुडिया गिरिणो सवे जोइस-चकं पि विहडियं दूरं । खुद्धा वणयरदेवा समयं चिय भवणवासीहि ॥ तिहुयण-संखोभाओ कुवियं दट्टण मुणिवरं हरिणा । पट्टविया से पासं गायण-सुरसुंदरि-समूहा ॥ गायंति कण्ण-मूले 'कोवोवसमो जिणेहिं पण्णत्तो । मा कोवानल-दड्डा जीवा वच्चंतु नरयम्मि' ॥ 'जं अजिअं चरित्तं' गाहा। "कोहो य माणो य अणिग्गहीया माया य लोभा य पवाडमाणा। चत्तारि एते कसिणो कसाया सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥ उनसमेण हणे कोवं माणं मद्दवया जिणे । मायं चऽजव-भावेण लोभं संतुहिए जिणे ॥ जो चंदणेण वाहं आलिंपइ वासिणा वि तच्छेइ । संथुणइ जो य निंदइ महरिसिणो तत्थ सम-भावा ॥" "क्रोधः परितापकरः सर्वस्योद्वेगकारकः क्रोधः । वैरानुषङ्गजनकः क्रोधः क्रोधः सुगतिहन्ता ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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