Book Title: Dharmopadeshmala Vivaran
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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धर्मोपदेशमालायाम् डको जेण मणूसो थद्धो न गणेइ देवराई(य) पि । तं मेरुपवय-निभं कह पेच्छसि तं महानागं? ॥ सललिय-वेल्लहल्ल-गई सोत्थिय-लंछण-फणंकिय-पडागा । मायामइया नागी नियडि-कवड-वंचणा-कुसला ॥ तं च सि बालग्गाही अणोसहि-बलो अपरिहत्थो य । सा य चिर-संचिय-विसा गहणम्मि वणे वसइ नागी॥ हुआ उ ते विनिवार्य तीए दाढंतरं उवगयस्स । 'अप्पोसहि-मंत-बलो न अप्पाणं चिकिच्छिहिसि ॥ उच्छरमाणो सवं महालओ पुण्णमेह-निग्घोसो। उत्तर-पासम्मि ठिओ लोहेण वियट्टए नागो॥ डको जेण मणूसो होइ महासागरो विव दुपूरो। तं सव-विसेसमुदयं कह घेच्छसि तं महानागं? ॥ एते ते पावाही चत्तारि वि कोह-माण-मय-लोहा । जेहि सया संतत्तं जरियमिव जयं कलकलेइ ॥ एतेहिं जो उ खजइ चउहि वि आसीविसेहिं सप्पेहिं ।
अवसस्स नरग-पडणं नस्थि हु आलंबणं किंचि ॥ एवं कहेऊण मुक्का तेण ते सप्या । समकालं च खुद्धो चउहिं पि निवडिओ धरणीए । पुत्व-उत्त-मित्ताइएहिं उवउत्ता मंता गया, न जाओ विसेसो । पच्छा देवेण भणियं-'हा ! केरिसं जायं?' वारिजंतो वि न ठिओ । पाय-पडिय-पधुद्विएण य ७ सयणेण भणिओ देवो- 'जीवावेसु एयं, करेसु पसायं, देसु माणुस-भिक्खं । देवेण भणियं- 'एवं चिय अहं पि खइओ, जइ एरिसं चरित्तमणुचरइ, तो जीवइ, जइ न पालेइ ति तओ जीविओ मरिस्सई' त्ति । अवि य
एएहिं अहं खइओ चउहि वि आसीविसेहिं सप्पेहिं । विस-निग्घायण-हेडं चरामि विविहं तओ( वो)-कम्मं ॥ सेवामि सेल-काणण-सुसाण-सुण्णहर-रुक्ख-मूलाई। पावाहीणं तेसिं खणमवि न उवेमि वीसंभं ॥ अच्चाहारो ण सहइ निघणं विसया उदिअंति । जाया (जो य) मायाहारो तं पि पगामं न इच्छामि ॥ उस्सण्ण-कयाहारो अहवा विगई-विवञ्जियाहारो । जं किंचि कयाहारो अवइ(उ)ज्झिय थेवमाहारो॥ "थोवाहारो थोव-भणिओ जो होइ थोव-निदो य ।
थोवोवहि-उवगरणो तस्स हु देवा वि पणमंति ॥" तओ समय-विहीए लिहिऊण महामंडलं, ठविओ तत्थ नागदत्तो ति । तओ देवेण पउत्ता एसा विज ति
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