Book Title: Dharmopadeshmala Vivaran
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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१५४
धर्मोपदेशमालायाम् ममावि संजायं कारणं, दसपुवी पुण पच्छिमो अवस्सं निजहइ, ता अहं पि निजहामि । ते य दस-अज्झयण-विसेसा निजूहिजमाणा वियाले निजूढा, तेण दसवेयालिअंति सत्थस्स नामं जायं ति । भणियं च परमगुरूहिं ति
"मणगं पडुच्च सिजंभवेण निज्जूहिया दसऽज्झयणा । वेयालिया प(य) ठविया तम्हा दसकालियं नाम ।। आयप्पवायपुवा निज्जूढा होइ धम्म-पण्णत्ती । कम्मप्पवायपुवा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ॥ सच्चप्पवायपुवा निज्जूढा होइ वक-सुद्धीओ। अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ ॥ बिइओ वि य आएसो गणिपिडगाओ दुवालसंगाओ।
एयं किर निज्जूढं मणगस्स अणुग्गहट्ठाए ॥" तओ छहिं मासेहिं पढिऊण मओ समाहीए मणगो देवलोगं गओ । अवच्च-नेहाओ कओ गुरुणा अंसुवाओ त्ति । अवि य
"छम्मासेहिं अहीयं अज्झयणमिणं तु अजमणएणं । छम्मासे परियाओ अह काल-गओ समाहीए । आणंद-अंसुवायं कासी सेजंभवा तहिं थेरा ।
जसभहस्स यं पुच्छा कहणा य वियारणा संघे ॥" अओ भण्णइ-अबवच्छेयत्थं जोगे सीसे पहावेज पभवसूरीवेत्ति ।
सुयदेवि-पसाएणं सुयाणुसारेण साहियं चरियं । सेजंभव-पभवाणं निसुणंतो लहउ सामण्णं ॥
पभव-सिजभव-क्खाणयं 'समत्तं ॥
दवाडवी य भावाडवी य दवाडवीए दिह्रतो । धणनाम-सत्थवाहो इयरीए होइ तित्थयरो ॥ ६१ [ द्रव्याटवी च भावाटवी च द्रव्याटव्यां दृष्टान्तः ।।
धननामा सार्थवाहः, इतरस्यां भवति तीर्थकरः ॥ ६१] कथमिदम् ?
- [८५. द्रव्याटव्यां धनसार्थवाह-कथा]-- समत्थ-गुण-विभूसियं वसंतउरं नयरं । तत्थ जियसत्तू राया । दीणाणाह-वच्छलो संपत्त-तिवग्ग-सुहो परोवयार-निरओ बंधव-कुमुयागर-ससी घणो नाम सत्थवाहो । सो ० देसंतरं गंतुकामो पाडहियं भणइ - 'भद्द ! उग्घोसेसु तिय-चउक्काईसु, 'जो धणेण सह वच्चइ, तस्स इमओ गमाओ जाव इट्ठपुरं, एयम्मि अंतरे असणाइणा अक्खूणं काहिं'
१ ह. क. सं। २ ह. क. अणस्साइ ।
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