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धर्मामृत ( अनगार) पुरुषार्थसिद्धयुपायका जो प्राचीन संस्करण प्रचलित रहा है। वह रायचन्द्र शास्त्रमालासे १९०४ में प्रकाशित हुआ था। उसका हिन्दी अनुवाद नाथूरामजी प्रेमीने किया था। पं. टोडरमलजी तो पुरुषार्थसिद्धयुपाय की पूरी टीका नहीं लिख सके थे। उसको पूर्ति पं. दौलतरामजीने की थी। एक टीका पं. भूधर मिश्रने लिखी थी। वह पहले ब्राह्मण थे और पुरुषार्थसिद्धयपायके अहिंसा प्रकरणसे प्रभावित होकर पीछे प्रसिद्ध पं. भूधरदास हुए। प्रेमोजीने अपने अनुवादके उत्तर भागमें पं. भूधर मिश्रकी टीकासे सहायता ली थी। इसीसे प्रेमीजी भी २११ के अर्थमें गलती कर गये और इस तरह उस गलत अर्थकी ऐसी परम्परा चली कि आजके विद्वान् भी उसी अर्थको ठोक मानने लगे। इसी तरहसे गलत परम्परा चलती है और उससे जिनागमके कथनमें भी पूर्वापर विरोध उपस्थित होता है। अतः पु. सि.के श्लोक २११ का तो यह अर्थ कि पुण्य बन्ध मोक्षका कारण है। यह एक भिन्न प्रश्न है। पुण्यबन्धको साक्षात् मोक्षका कारण तो कोई भी नहीं मानता। जो मानते हैं वे भी उसे परम्परा कारण मानते हैं और वह भी सम्यग्दृष्टिका पुण्यबन्ध ही परम्परा मोक्षका कारण होता है मिथ्यादृष्टिका नहीं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि पुण्यबन्धकी भावना रख
र धर्मकार्य नहीं करता। पुण्यको तो वह हेय ही मानता है किन्तु रागके सद्धावसे पुण्यबन्ध तो होता है। निरीह भावसे संचित हुए ऐसे पुण्यबन्धको ही किन्हींने परम्परासे मोक्षका कारण कहा है। - स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें तथा उसकी संस्कृत टीकामें पुण्यके सम्बन्धमें बहुत ही उपयोगी और श्रद्धान करने योग्य कथन है । गाथाओंका क्रमांक ४०९ से ४१३ तक है। नीचे हम उनका अर्थ देते हैं
ये दस धर्म पापकर्मके नाशक और पुण्यके जनक कहे हैं। किन्तु पुण्यके लिए उन्हें नहीं करना चाहिए ॥४०९॥
इसको टीकामें आचार्य शुभचन्द्रने कहा है कि पुण्य संसारका कारण है इसलिए पुण्यके लिए दस धर्म नहीं करना चाहिए।
जो पुण्यकी इच्छा करता है वह संसारको इच्छा करता है। क्योंकि पुण्य सुगतिका कारण है और पुण्यके क्षय होनेसे निर्वाण होता है ।।४१०।।
जो विषयसुखकी तष्णासे पुण्यकी इच्छा करता है उस मनुष्यके तीव्र कषाय है। क्योंकि तीव्र कषायके विना विषय सुखको इच्छा नहीं होती। अतः विशुद्धि उससे कोसों दूर है और विशुद्धिके विना पुण्य कर्मका बन्ध नहीं होता ॥४११॥ .
तथा पुण्यकी इच्छा करनेसे पुण्यबन्ध नहीं होता। जो निरीह होता है अर्थात् परलोकमें सुखकी वांछा नहीं रखता, देखे हुए सुने हुए भोगे हुए भोगोंको आकांक्षा रूप निदानसे रहित है, उसीको पुण्यरूप सम्पत्ति प्राप्त होती है। ऐसा जानकर हे मुनिजनो ! पुण्यमें भी आदर भाव मत करो ॥४१२॥
मन्द कषायी जीव पुण्यबन्ध करता है अतः पुण्यबन्धका कारण मन्दकषाय है, पुण्यकी इच्छा पुण्यबन्धका कारण नहीं है ।।४१३॥
सारांश यह है कि जिनागममें जो पुण्यकी प्रशंसा की गयो है वह विषय कषायमें आसक्त संसारी जीवोंको पाप कर्मसे छडानेके लिए की गयी है। उनके लिए पापकी अपेक्षा पुण्यबन्ध उपादेय हो सकता है किन्तु मोक्षाभिलाषीके लिए तो जैसे पाप त्याज्य है वैसे ही पुण्यबन्ध भी त्याज्य है । देवपूजा मुनिदान व्रतादि पुण्यकर्म भी वह मोक्ष सुखकी भावनासे ही करता है, पुण्यबन्धकी भावनासे नहीं करता। यदि करता है तो उसका पुण्यबन्ध संसारका ही कारण है। निश्चय और व्यवहार - आचार विषयक ग्रन्थों में एक पुरुषार्थ सिद्धयपायके प्रारम्भमें ही निश्चय और व्यवहारकी चर्चा मिलती है। उसमें कहा है कि भूतार्थको निश्चय और अभूतार्थको व्यवहार कहते हैं। प्रायः सारा संसार भूतार्थको
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