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व्याख्यानों तथा पठन-श्रवण में ही परिपूर्ण नहीं हो जाता। पुराने जमाने में लोग केवल मंदिर जाकर ही धर्म की प्राप्ति कर लेते थे, परंतु आज मंदिर तथा साधुओं को धर्म की इस मंगलमय भावना को मानव के गृहमंदिर, कर्ममंदिर तक पहुंचाने की पदयात्रा प्रारंभ करनी होगी। मानव जीवन के विविध क्षेत्र तक पहुंचकर धर्मरूपी स्तोत्र को बहता हुआ रखना होगा। यही काल धर्म है, आपद् धर्म है। - पूज्यश्री के साहित्यिक एवं रसपूर्ण पुस्तकों ने एक विशाल वाचक वर्ग खडा किया है। अंतिम दस वर्षों में इन्होंने गुजरात में ग्रंथसप्तक का प्रसाद धरा है, गुजराती साहित्य एवं धर्मभावना के साहित्य को सुसमृद्ध बनाया है।
जीवन के विविध प्रसंग पुष्पों का पराग, सुगंध फैलाता हुआ ‘सौरभ', धर्मपथ के यात्रियों को नवदृष्टि प्रदान करने वाला 'भवनु भातुं'। क्षणिक तथा मायावी सुख में पड़े हुए लोगों को आवाज देता हुआ ‘हवे तो जागो', मानवमात्र की अप्रगट छबि बताता हुआ 'कथादीप' | जीवात्मा को परमात्मा के दर्शन कराता हुआ ‘बिंदुमा सिंधु', विचार रत्नों से हृदय को शांति प्रदान करता हुआ ‘प्रेरणानी परब' हृदयस्पर्शी विचारधारा से सुशोभित 'जीवन मांगल्य', इनके इस सप्तक में प्रस्तुत नये ग्रंथ का समावेश करने से, धर्मकार्य का एक मंगलाष्टक पूर्ण होता है।
तत्पश्चात यह प्रार्थना ! हे, मुनिश्री ! प्रोढ़ों को आपने बहुत कुछ दिया है, बहुतों के हृदय को शीतलता प्रदान की है। परंतु अब अपने देश की भावि आशाएँ जिन पर अवलम्बित हैं, इस देश की संस्कृति उन बालकों तथा युवक-युवतिओं को संस्कार बोधक और सहकार पोषक कथा साहित्य की भेट आप नहीं देंगे? इनका हृदय तथा हाथ क्या आपके संजीवनी साहित्य से खाली रहेंगे? सभी भाविकों की तरफ से मैं आपके पास, आज के मंगल दिन यह प्रस्ताव रखता हूं। और दो चार हार्दिक आभार शब्द 'प्रेरणानी परब' का पानी पीकर आनंद अनुभव करते हुए विशाल भक्त, मित्र समुदाय के प्रोत्साहन से पूज्यश्री के प्रेरक प्रवचनों का, जो मेरी अपूर्णता के कारण शायद अधूरा हो सकता है, परंतु पूज्यश्री के प्रवचनों से मधुर बने हुए इस ग्रंथ को पेश करते हुए मेरी आत्मा अत्यंत हर्ष का
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