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है यह उन्हें अच्छी तरह आता है। कभी रम्य कल्पना से, तो कभी काव्य पंक्तियों से, कभी मनोहर उदाहरणों से, तो कभी क्रांतिकारी प्रहारों से, कभी कारूण्य भाव तो कभी कटाक्ष भाव, कभी पाण्डित्यभरा साहित्य तो कभी सरल और कभी मीठी बोली। कभी जीवन की करूणता का दर्शन करा कर, तो कभी रूला कर, कभी अंतरमन का प्रकाश दिखाकर, हंसाकर, सबको ज्ञान मंदिर के सोपान चढ़ाते है। धर्म और जीवन के कठिन पाठ सरलता से पढ़ाते है, और आत्मीयता की रस वर्षा से सबको आनंदमस्त कर देते हैं।
इस ग्रंथ का स्वाध्याय, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, रसिक और प्रेरक आलेखन मात्र ही नहीं, इसमें बताए हुए इक्कीस सद्गुण सोपान का सौंदर्यमय और कल्याणकारी दर्शन, धर्मी मानव के लिए आचार संहिता है।
इस ग्रंथ से यह प्रतीत होता है कि धर्म का जो सच्चा स्वरूप है, वह व्यक्ति के प्रत्येक आचार, विचार, वाणी और बर्ताव में प्रतिबिंबित होना चाहिए। धर्म केवल पढने और बोलने का ही विषय नहीं है, बल्कि इसकी भाव पूजा तो प्रतिपल होनी चाहिए। ग्रंथ का प्रत्येक सोपान, जीवन का विशिष्ट, विषद तथा सर्वजन मंगलकारी स्वरूप बताता है। धर्मरत्न से सुशोभित, मंगलमंदिर के प्रति प्रयाण करने की प्रत्येक भक्त में नयी श्रद्धा और झंखना प्रगट करती है, जीवन में नया प्रकाश फैलाती है।
आज मनुष्य जीवन रूपी झरना, सुमार्ग त्यागकर कुमार्ग की तरफ बह रहा है, तब उसे सुपथगामी बनाने की आशा हम एक तो धर्मगुरुओं से तथा दूसरे शिक्षागुरुओं से ही रख सकते है। संस्कृति का इतिहास, अनुभव द्वारा कहता है कि मानव समाज की प्रगति का नवदर्शन, नयी प्रेरणा देने का कार्य आज तक धर्म तथा धर्म उपदेशक, तथा शिक्षा तथा आश्रमगुरुओं ने किया है, ऐसा करके मानव प्रगति में प्रोत्साहन दिया है। आज के इस संक्रान्तिकाल में इन दोनों मंडलों का विशेष धर्म बन जाता है।
संपूर्ण विश्व आज अभूतपूर्व गति से विकास कर रहा है। आज का नया धर्म, मात्र मंदिर में मूर्तिपूजा, पूजा अर्चना, क्रियाकांडो, कथाओं,
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