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श्री धर्म प्रवर्तन सा२. श्रातमज्ञानी सोनागीरे ॥ सुपार्श्व० ॥२॥ जीव पुद्गल छ व्हेंचण करी, उपयोग स्वरूपमां कीधोरे ॥ चिदानंद ज्योति जगमगे, परमानंद रस पीधोरे ॥ सुपार्श्व ॥३॥ अप्रमत्त श्रातम हु, क्षपकश्रेणी तीहांमांमेरे ॥ सुक्ल प्रथम है पगथालीए, मोह प्रकृति सर्व जमेर ॥ शुपार्श्व ॥४॥ समन्नावे चढती कळा, शुद्ध परिणतिमां आवेरे ॥ वीतराग है गण अंते बारमे, त्रण कर्म क्ष्य थावेरे ॥ सुपार्श्व० ॥ ५॥ अनंत चतुष्टयी पामीया, त्रिगहुं देव बनावेरे ॥ पर्षदा बार मळे तीहां, देशना जीनजी सुणावेर ॥ सुपार्श्व ॥ ६॥ उपजे विणसे थीर रहे, एतो वस्तु विचार रे ॥जे मरियादा वस्तुकी, सो सत्ता निरधार रे ॥ सुपार्श्व०॥७॥ उपजदूं वीणस, ते सही, पर्याय धर्म सद्नावरे ॥ स्थीरपणुं तीहां अव्यनु, एम वर्ते लक्षण न अन्नावरे ॥ सुपार्श्व० ॥ ७॥ ते वस्तु षट् लेदे जाणीये, गुण पर्याय संयुक्तरे॥ हेय जाणी अजीव पांच परहरो, ग्रहो उपादेय चेतन निज युक्तरे॥ ॥ सुपार्श्व ॥ ए ॥ एम सुणी के समकित पामीया, केश्क देश विरति थावेरे केश्क महावत उचरे, एम लान वहु पावरे ॥ सुपार्श्व ॥ १० ॥ एम नव्य जीवने तारता, करता बहु उपकाररे ॥ आयु पूर्ण करी सिद्धि वर्या, ज्ञान शीतळ जीन अणगाररे ॥ सुपार्श्व० ॥ ११ ॥ संपूर्ण. ॥
स्तवन ॥ ८ मुं॥ गिरुयारे गुण तुम तणा ॥ ए देशी. ॥
चंद्र प्रत्न जिन देशना, सुणतां शंका नाजे रे ॥ निFRACTRESEditativDore
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