Book Title: Dharm Pravarttan Sara Granth
Author(s): Surchandbhai Swarupchand Shah
Publisher: Ratanchand Laghaji Shah

View full book text
Previous | Next

Page 287
________________ સજઝાય અધિકાર. GORSMIRMITRA PRGRIDGUSDGMOMGre कदीए ते ना करे ॥ त्रुटक० ॥ ना करे वंढा शुन्न फळ केरी, ४ शुन्न कर्मे शुद्ध न कोरे ॥ शुन्न कर्म ए पुन्य प्रकृति दीये १ 9 शातामें उदये जोरे ॥ ते पापस्थान दश पंचमुं रति, पाप , दाता ए सही ॥ पुन्य जोगवतां पाप थावे, ते कारण पुन्य नडुं नहीं ॥२॥ एम सांनळी रे, अज्ञानी ते बोले श्श्युं॥ सुपात्रनेरे, दान देश न श्च्चे फळ कश्युं ॥ एम जोता रे, सुपान निरथक हुई ॥ फळ दातारे, सुपात्र तो सुत्रे कह्या जु ॥ त्रुटक० ॥ सुपात्र तो सुत्रे कह्या बे, बोधि बीज दाता सह। ॥ दिक्षा दाता चरण प्रख्याता, आश्रव पंच त्यागी सही ॥ निर्जरा हेतु तप गुण दाता, शीवसुख हेतु ए नसा ॥ इच्छा रहित विनय जोगे, दान दे शुन्ना शु. नथी टल्या ॥३॥ एम सांनळी रे, जीनदास विनति करे ॥ मुज घरे मुनिरे, सहस चोरासी पारणुं करे ॥ ए विनतिरे साहेब मारी मानजो ॥ मनोरथ फळेरे, गुण रागे नक्ति जाणजो ॥ त्रुटक० ॥ वळतुं केवळझानी बोले, एम वाततो नहीं बने ॥ सहस चोरासी सूझतुं लेवे, आहार पाणी कीहां क्यां कने ॥ एटलो आहारादिक एक गमे, सुमतो कदी निपजे नहीं ॥ तुज मनोरथ पूरवा दाखं, फळ एटबुं होवे सही ॥ ४ ॥ वच्छ देशेरे, शेठ विजय राणी विजया ॥ नावयति शुद्धरे, ग्रहस्थी बेझाने निजी या ॥ शियळ शुद्धरे, अदभूत अचळ मगे नहीं॥ उत्कृष्टारे, ए सम अवर न जग मही ॥ त्रुटकः ॥ ए बेहुने उलट हे नर देवो, नोजन नलो रस स्वाद ए ॥ नक्ति करीने रंग है (२७५) 6368waroo RowLGAGreatmaraGoodmaraGroor Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344