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॥ चैत्यवंदन ॥ ५ मुं॥ वस्तु स्वन्नावने जाणवा,अनुन्नव उपयोग रंग॥ निज पर सत्ता निन्नता, एही ज्ञान तरंग ॥१॥ पर संगे उपयोगता, एही अशुद्ध आचार ॥ साधन वाधक फळ दीए, तेथी स्थीर संसार ॥२॥ चेतन जब बळी दुवे, वीर्य है स्फूरणा पाय ॥ विन्नाव उपयोग परिणमन, पर परिणति बेदाय ॥ ३ ॥ एहीज इच्छा माही, परअनुन्नव यथाय॥ शुद्ध परिणतिमां वशी, निर्विकल्प रस पाय ॥ ४॥ अनुनव स्थिर सहेज नावमां, सहज संवर प्रकाश ॥ आश्रव रोध शुद्ध निर्जरा, कर्मघन तिमिर विनाश ए॥५॥ स्वन्नाव चेतनता, व्यक्ति धर्म अनंत ॥ अति निर्मळ विशुद्धता, एही सिद्ध महंत ॥ ६॥ निरंजन निराकारए; अगम
अनोपम रूप ॥ अबाधित आनंदमां, झान शीतळ गुण 3 जूप ॥ ७॥
॥ अथ स्तुति अधिकार. ॥
॥सिद्धचक्रजीनो थोय जोडो १ लो॥ ॥ गौतम बोले ग्रंथ संनारी ॥ ए देशी. ॥ सिद्धचक्र वंषु मनरंगे, नवपद नावना नाव उमंगे; 8 आत्म स्वन्नावना संगे ॥ पेहेलो अरिहंत पद अवकाश, गुण घाति चकर्म विनाश, अनंत चतुष्टयी वास ॥ ए ६ पद सयोग अयोगमां धारुं, योगातित सिद्धपदमा विचारूं; ॐ सकल शिरोमणि प्यारं ॥ श्राचार्य उवज्मायने साधु, प्रमत्त ह g, अप्रमत्त गुणमा लाध्यु, शीवपद साधन वाध्यु ॥ १॥ द-६ Hereasaraswaeos
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LEARNITIA
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