Book Title: Devchandraji krut Chovishi Balavbodh
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 141
________________ श्रीअरजिनस्तवन १३५ योगसमाधिविधांन॥असाधारणतहवदेरी॥ विधिआचरणानती। जिणेनिजकार्यसधेरी॥१०॥ अथ ॥ हवे सिघतारूपकार्यनो असाधारण कारणकेहेबे मन वचन कायानायोग तेहनेव्यथी तथानावथस्वगुणरमणमा छ राग) अषाचणे अविवो तेआत्मसमाधि चोथागुण ठाणथी मामीने सिझपर्यंतजे गुणनोरधिकरवी एटले अभिनवगुणनो का रणपणो ते सर्व ज्ञान दर्शन चारित्र श्रेणीगतध्यान परिणामत योप समीनाव विधिसहितआचरणा तथानक्ति अने गुणीनोबहुमान जेथा पोतानाकार्टानीसिचिनीपजे तेझानक्रिटारूप साधकअवस्थानी तरतम तातेसर्वसाधारणकारणकहेवो एअसाधारणकारणते आत्मगुण रूपदा ननी भिन्न भिन्न मणताथकानीअवस्थाले सदापूर्वपर्याटा नत्तरपर्यायनो कारण तेसमयेज क्रियाकाल निष्टाकाल नोअनेदबे इतिगाथार्थ॥१०॥ नरगतिपढमसंघयण ॥तेहअपेदाजाणो॥ निमित्ताश्रितनपादान ॥ तेहनेलेखेाणो॥११॥ अर्थ ॥ हवेअदाकारण तथा निमित्तएबेकहे नरके मनुष्य नीगति पढ़मके० पहेलोसंबेदाणवजशषननाराच पंचेपिणे इत्या दि सिधिरूपकार्यनो अपेक्षा कारणजाणो ईहांकानो व्यापारनथी पण एनिश्चे जोइटो एपाम्याविना मोदरूपकार्यनी साधना थायनही तेमाटे अपेदाकारण कहीटों पण एमनुष्यनीगल्या दिकसर्वजेजी वनो उपादानपरणमन धर्मार्थीथयीने निमित्तजे देवगुरु सिमांत तेहनेजेणे आसरयो तोतेहनी मनुष्यगति लेखेके कारणपणे आण जो अने जेणेनिमित्तनेासस्योनथी तेहनीमनग्यगति कारण प णामांगणसोनही तेहजीअनादिनीचालमांचे पलटणकरतानपी लेटे इतिएकादसगाथार्थ ॥ ११ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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